एक दोधारी तलवार : सोशल मीडिया
द्वितीय
विश्वयुद्ध की ख़ूनी झाँकी के बाद दुनिया भौतिक क्रान्ति से निकलकर डिजिटल
क्रान्ति की तरफ़ कूच कर रही थी और समाज सड़कों, गलियों और गाँवों की सीमाएं
तोड़कर वैश्विक हो रहा था, उससे प्रेरणा लेते हुए लगभग 1970 के दशक के आस-पास ‘सोशल मीडिया’ शब्द की हल्की हल्की गूँज
दुनिया के कानों में पहुंची। सन् 2000 का दशक आते आते इस शब्द की महत्ता इतनी बढ़
गई थी कि अमेरिका में एक बड़ा शहर अस्तित्त्व में आया जिसे हम सब सिलिकॉन वैली के
नाम से जानते हैं। विश्व को डिजिटल रूप से जोड़ने की कोशिश में पूरी दुनिया का तकनीकी
दिमाग एक जगह पर पूरी मेहनत के साथ लगा हुआ था, क्योंकि यह तंत्र ही आने वाले
भविष्य की दस्तक भी थी और क्रान्ति का सबसे घातक ज़रिया भी।
“कम्प्यूटर
या मोबाइल द्वारा लोगों से संपर्क स्थापित करना, संवाद करना
सोशल नेटवर्किंग कहलाता है और जिस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल यहाँ किया जाता है, उसे
कहते हैं सोशल मीडिया।“
दौर बदल रहा
था। सन् 1985 में एक ओर जहाँ राजीव गाँधी भारत में
कम्प्यूटर क्रान्ति की कवायद कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर विपक्ष इसको आने वाले समय
का सबसे बुरा निर्णय बता रहा था। वक्त बदला, धीरे धीरे कम्प्यूटर का डंका ऐसा बजा
कि देश का सारा सरकारी से लेकर प्राइवेट काम फाइलों की धूल और बेवक़्त फिज़ूल की
मेहनत से बचने की कोशिश में कम्प्यूटर को सौंपा जाने लगा। पहले सरकारी काम और उसके
बाद मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करने के लिये कम्प्यूटर घरों में भी अपनी जगह बनाता
रहा।
अपने
उपभोक्ता तक पहुंचने की होड़ में कंपनियों ने भी स्वयं को डिजिटल किया। विज़िटिंग
कार्ड पर हर कंपनी के फ़ोन नंबर के साथ उसका ईमेल एड्रेस चस्पा किया जाने लगा। बीसवीं
सदी का आखिर आते आते दुनिया के ज़हन में सोशल मीडिया का ख़ुमार ऐसा चढ़ा कि इक्कीसवीं
सदी के शुरुआती दस सालों में ही गूगल मेल, फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन
ने पुरानी व प्रचलित संचार माध्यम वाली संस्थाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसके
दो मूलभूत कारण थे, समय और पैसे की बचत। 2006 से 2011 आते आते टेलेग्राम संचार में
भारी आई। नतीजतन 163 वर्षों तक देश की प्रगति में सहायक भारतीय टेलेग्राम व्यवस्था
को केन्द्र सरकार ने आधिकारिक रूप से तिलांजलि दे दी।
ये तो बात उस
समय तक की, जब कम्प्यूटर और इण्टरनेट आमजन तक अपनी जगह बना रहा था। असली क्रान्ति
तो मोबाइल के हर हाथ तक पहुँचने के बाद शुरू होनी थी। धीरुभाई अंबानी ने सपना देखा
हर घर तक मोबाइल पहुँचाने का। गली मोहल्ले में नारे गूँजते थे, “धीरुभाई अंबानी का सपना, हर आदमी के पास हो मोबाइल अपना”। सपना पूरा हुआ भी, रिलायंस कम्युनिकेशन्स ने महज़ 15 सालों में ही 3.3
बिलियन डॉलर का बाज़ार खड़ा कर लिया था। रिलायंस को कड़ी टक्कर देने के लिये
मोबाइल इण्डस्ट्री में एयरटेल, वोडाफ़ोन और आइडिया भी दाँव खेल रहे थे। इन
कंपनियों की मुर्गा लड़ाई में अगर कोई सर्वाधिक प्रगति कर रहा था, तो वो था मोबाइल
का कारोबार। कम से कम कीमत में अधिक से अधिक उपभोक्ता तक पहुँचने की होड़ में
मोबाइल क्रान्ति अपने वर्चस्व पर पहुँच चुकी थी। उसके बाद आम जनता के हाथों आए
जियो के बवंडर ने जो कोहराम मचाया, उसका अंजाम तो आप सभी जानते हैं।
2002 से
भारत में दस्तक देने वाली मोबाइल क्रान्ति ने एक दशक के भीतर पूरे हिन्दुस्तान को
मोबाइल का ग़ुलाम बना डाला। रोज़मर्रा के काम में भी मोबाइल अपनी भूमिका तलाशने
लगा था। मूलभूत ज़रूरतों के नाम पर मोबाइल का नशा जनता के सिर पर कुछ यूँ चढ़ कर
बोला कि 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में फ्री वाई फ़ाई भी आम आदमी पार्टी का एक
महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन चुका था, जो न सिर्फ़ युवाओं को लुभा भी रहा था, बल्कि वोट
भी जुटा कर दे रहा था। हमारी मूलभूत ज़रूरत मोबाइल के सहारे सोशल मीडिया का ज़हर
भी आहिस्ता आहिस्ता भोली भाली जनता की नसों तक पहुँचने लगा था।
यह रहा
सोशल मीडिया के हम तक पहुँचने की कहानी, अब हम आने वाले क्रम में बिन्दुशः सोशल
मीडिया के प्रभावों का आँकलन करेंगे।
केन्द्र
: यूपीए 2 वाली कांग्रेस
की सरकार गिर गई। 26 मई 2014 को राष्ट्रीय आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 282 सीटें जीत कर बहुमत हासिल किया। जनता का दिल जीत कर गुजरात
विधानसभा के मुख्यमंत्री पद से सीधा सत्ता के केन्द्र में प्रधानमंत्री पद पर
पहुँचने वाले नरेन्द्र मोदी जी को पता था कि जनता का दिल आगे भी कैसे जीतना है।
उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में दो काम बखूबी किये। एक तो कांग्रेस की सरकार में
होने वाले घोटालों को उजागर किया और दूसरा कांग्रेस सरकार की योजनाओं की विफलताओं
को जनता के बीच लेकर गए। कांग्रेस की कई सारी योजनाएं तो जनता को पता तक नहीं थी।
लेकिन राजनीति के चाणक्य मोदी से ऐसी गलती होना नामुमकिन था।
प्रधानमंत्री
बनने के तुरन्त बाद मोदी जी ने सोशल मीडिया के रास्ते अपनी हर योजना को जनता के
कानों तक सीधा पहुँचाया, जिससे जनता के मन में विश्वास बना रहे कि सरकार काम कर रही
है। यह रहा सोशल मीडिया का पहला फ़ायदा जिसका सटीक इस्तेमाल किया प्रधानमंत्री
मोदी और समूची कैबिनेट ने।
निजता
: सोशल मीडिया के
सर्वेसर्वा आपकी निजता का पूरा ख़्याल रखते हुए दिखते हैं। लेकिन यह बदकिस्मती है
कि केवल दिखते हैं, करते नहीं। 2.1 बिलियन
उपभोक्ताओं वाली कंपनी फ़ेसबुक का डाटा कैम्ब्रिज एनालिटिका के चोर उड़ा ले गए।
कप्तान मार्क ज़करबर्ग अमेरिका की सीनेट में आँखें नम किये हुए माफ़ी माँग रहे थे
और स्वयं को ज़िम्मेदार बता रहे थे, लेकिन इस माफ़ी से पहले 2016 में अमेरिका की
सरकार बदल चुकी थी और डोनॉल्ड ट्रंप मिस्टर प्रेसिडेंट बन चुके थे। 56वें अमेरिकी चुनाव में सोशल मीडिया के द्वारा लोगों का मत बदलने का आरोप
कैम्ब्रिज एनालिटिका पर है, जिसने फ़ेसबुक के डाटा का अवैध इस्तेमाल किया।
2014 में
अमेरिका पिउ रिसर्च सेन्टर ने एक विस्तृत रिपोर्ट में ज़िक्र किया कि 91 प्रतिशत
अमेरिकी मानते हैं कि उनकी निजी जानकारी का किसी दूसरी संस्था के द्वारा उपयोग
किया गया है। थोड़ा जागरूक हो लें तो जानेंगे कि सोशल मीडिया के इस मायाजाल को
आपकी सारी जानकारी है कि आप कब, कहाँ और क्या कर रहे हैं और आपके इस डाटा का उपयोग
आपकी इच्छा के बिना भी संभव है। अन्ततः बात यही निकल कर आती है कि आपका डाटा अगर
सोशल मीडिया पर है, तो संभव है कि वह आपके इतर किसी और की निगरानी में भी है। आपका
डाटा सिर्फ़ आपका नहीं है।
अविश्वसनीयता
: भारत अपने जुगाड़
के लिये विश्व भर में प्रसिद्ध है। जिस सोशल इंजीनियरिंग की गोटियाँ सिलिकॉन वैली
वाले सजा रहे थे, उनका तोड़ हम पहले से तैयार लिये बैठे थे। जब फ़ेसबुक अपने लॉगइन
पेज पर ‘इट्स फ्री एण्ड ऑलवेज़ विल बी’ लिखकर बिना किसी प्रमाणिकता के अपना अकाउण्ट बनाने की खुली छूट देता है तो
उसका नुकसान होना भी लाज़मी है। सोशल मीडिया का एक फ़ायदा तो यह था कि सरकार की
सारी योजनाओं की जानकारी सीधे जनता तक पहुँच रही थी, लेकिन नुकसान भी था। इस
जानकारी की विश्वसनीयता का। इसका फ़ायदा उठाकर चुनिंदा लोगों ने जनता को जमकर
बेवकूफ़ बनाया। इसका इस्तेमाल कर भ्रामक ख़बरें भी लोगों के बीच पहुँचाई गईं। और
ऐसी ख़बरें पहुँचाने में कारगर हथियार बने फ़ेसबुक और व्हॉट्सएप्प। इन भ्रामक
ख़बरों का असर इतना ख़तरनाक था कि जगह-जगह पर लोग भीड़
द्वारा हत्या के शिकार हुए। महाराष्ट्र, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, गुजरात समेत भारत
के लगभग सभी प्रदेशों से ख़ूनी ख़बरें आ रही थीं। सरकार तक में बवाल मच गया। इतनी
बड़ी मार करने में जो हथियार उपयोग हुआ, वह था छोटा सा व्हॉट्सएप्प फॉरवर्ड। छोटा
हथियार, बड़ा संहार। ये नुकसान था, सोशल मीडिया के विज्ञान का।
कला : सोशल मीडिया का एक फ़ायदा है, कम से कम समय
में अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने का, वह भी बिना किसी विशेष मेहनत के। कोई कहीं
भी हो, कुछ भी कर रहा हो, लोगों तक अपना अस्तित्त्व सोशल मीडिया के ज़रिये पैदा कर
सकता है।
पिछले कुछ
सालों में कला के स्तर पर बड़ा बदलाव आया है। कई दशकों तक बड़ा पर्दा और टीवी ही
मनोरंजन का साधन था, पर उनके बवाल भी कम नहीं थे। 21 फ़रवरी 2012 को यूट्यूब जैसे बड़े खिलाड़ी का सहारा लेकर अरुणाभ कुमार का
‘द वायरल फ़ीवर’ पहला ऐसा एंटरटेनमेंट
स्टार्टअप बना, जिसने सबका ध्यान टीवी के धारावाहिकों से खींचकर एक नई नवेली
एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की ओर खींचा जिसमें न तो कलाकार पर कहानी को खींचने का कोई
दबाव था और न ही दर्शक पर उसको नियमित समय पर देखने की सीमा। इसने अपने भीतर ही
कलाकारों को हुनर दिखाने की नई संभावना दी, जिससे भुवन बाम और ज़ाकिर ख़ान जैसे सितारे
अवतरित हुए। वीडियो बनाओ और स्टार बन जाओ। हालाँकि इसके पीछे जियो की आँधी को भी
कम नहीं आँकना चाहिये। बेरोज़गारों को निश्चिंत होकर समय बर्बाद करने का काम जियो
ने बख़ूबी किया है।
ट्रोलिंग
: हमारे प्यारे भारत
का एक प्यारा सा संविधान है, जिसे हमने 26 जनवरी 1950 को सर्वसम्मति से स्वीकार
किया। इस प्यारे से संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के अनुसार हमारे प्यारे भारतीयों को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति
स्वातंत्र्य का अधिकार है। अर्थात् आपको अपनी बात कहने का अधिकार है। उसके बाद आया
सोशल मीडिया का भूत, जिसने इस अनुच्छेद की ऐसी परिभाषा समझाई कि संविधान चीथड़े-चीथड़े
हो गया।
बचपन में
हमने सुना था, ‘आपकी स्वतंत्रता वहीं पर समाप्त हो जाती है,
जहाँ से दूसरे की शुरू होती है’। सोशल मीडिया ने बताया कि
स्वतंत्रता की सीमा वहाँ तक होती है, जहाँ तक आप सामने वाले को आतंकित कर दो। इस
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में गाली देना और रेप करने की धमकी देना भी आता था। प्यारे
लोगों ने इसका जमकर सदुपयोग किया। जिसने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर
ट्विटर पर कुछ बात रखी, उसको गालियाँ और धमकियाँ देने की स्वतंत्रता से चुप करा
दिया गया। इस महान कर्म को ‘ट्रोलिंग’
की संज्ञा दी गई है।
आतंक : कुरुक्षेत्र नामक कविता संग्रह में रामधारी
सिंह ‘दिनकर’ लिखते हैं-
“सावधान मनुष्य, यदि विज्ञान है तलवार।
तो उसे दे छोड़, तजकर मोह स्मृति के पार।।
खेल सकता तू नहीं, ले हाथ में तलवार।
काट लेगी अंग तीख़ी है बड़ी यह धार।।“
दिनकर ने बहुत पहले बता दिया था कि विज्ञान का इस्तेमाल
इंसान को ले डूबेगा। कारण यह नहीं कि विज्ञान ग़लत है, बल्कि मनुष्य को अपनी
सीमाओं का ज्ञान नहीं है। डायनामाइट बनाया किसलिये गया था, उपयोग किसलिये हो रहा
है।
कुछ सालों
पहले टेलीविज़न पर एक प्रचार आता था, आइडिया इंटरनेट नेटवर्क का। इंटरनेट की मदद
से एक लड़का ड्रोन बनाना सीख लेता है। लेकिन हमको पता है कि इंटरनेट का कितना
गन्दा इस्तेमाल होता है समाज में। आप इंटरनेट का इस्तेमाल बम बनाने में भी करते
हैं या कर सकते हैं। और यह ऐसे कामों में पूरा सहयोग देता है सोशल मीडिया, जो
फ़र्ज़ी क्रान्तिकारियों को आपस में जोड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है
आईएसआईएस। कनाडा की दो लड़कियों ने सोशल मीडिया से आईएसआईएस में प्रवेश पाया।
आईएसआईएस ने ‘गॉड ऑफ़ ग्लैड टाइडिंग्स’ नामक एक एप्प भी बनाया है जिससे उसके कामों की जानकारी सबको मिलती रहे।
तालिबान और अल-क़ायदा संगठन भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल चंदा इकट्ठा करने में करते
हैं।
व्यापार : सोशल मीडिया हमारे लिये एक आभासी दुनिया के समान है,
जिसमें सब कुछ हमसे एक क्लिक की दूरी पर है। अपने छूटे हुए साथियों से लेकर बिछड़ा
प्यार तक सोशल मीडिया की गलियों में हमारा इंतज़ार कर रहा है। संचार के अब तक के
सर्वाधिक विश्वसनीय व उन्नत उदाहरणों में सोशल मीडिया पहले पायदान पर है। लेकिन
संचार के इतर दूसरे माध्यम भी हैं, जहाँ सोशल मीडिया ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है
जिससे बड़े स्तर पर आर्थिक बदलाव भी आया है। व्यापार इनमें से एक प्रगतिशील उदाहरण
है।
हम जानते हैं
कि निजता के आभासी बाज़ार में सोशल मीडिया को आपकी सारी जानकारियाँ उपलब्ध हैं।
तमाम कंपनियों से संपर्क कर आपकी सहूलियत के लिये उस किस्म के प्रोडक्ट आपकी फ़ीड
में डाले जाते हैं, जो आप दूसरी सोशल साइटों पर खोजते हैं। दूसरी सोशल साइटों पर
खोजने का अर्थ है कि आप प्रोडक्ट की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं। इसलिये आपके लिये एक
छद्म आवरण बनाकर आपके फ़ायदे की वस्तुएं आपकी फ़ीड में डाली जा रही हैं जिससे आप
व्यापार में उपभोक्ता का काम कर रहे हैं।
मार्केटिंग प्रोफ्स के अनुसार 2017 में विश्व भर
से 41 बिलियन डॉलर का निवेश ऑनलाइन प्रचार के लिये किया गया जिसमें 10.41 बिलियन
डॉलर अकेले फ़ेसबुक को मिले। अगर आँकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि पिछले कुछ
सालों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल ऑनलाइन प्रोडक्ट के प्रचार के लिये काफ़ी बढ़ा
है।
ई-कॉमर्स : सोशल मीडिया ने ई-कॉमर्स के भी कई सारे रास्ते हमारे लिये
खोले हैं। आज के समय में कई सारे डिजिटल प्रोडक्ट्स की बुकिंग भी ऑनलाइन ही होती
है जिससे उपभोक्ता और कंपनी के बीच की दूरी घटती है और व्यापार में विश्वसनीयता
बढ़ती है। इन ऑनलाइन बुकिंग के लिये उपयोग किया जाता है सोशल मीडिया का। कंपनियाँ
सोशल मीडिया का सहारा लेकर अपने प्रोडक्ट उपभोक्ता तक पहुँचाती हैं और सबको
मुनाफ़ा होता है।
अमेज़न और
फ्लिपकार्ट फिलहाल तक इस व्यापार के विराट कोहली हैं। सोशल मीडिया से जन्मा यह
व्यापार विदेशों में भले ही फल फूल रहा हो, लेकिन भारत में अभी भी अपने बाल्यकाल
में है। आने वाले समय में यह व्यापार आज की तुलना में दस गुना तक बढ़ने की संभावना
है। कम्प्यूटर की दो विशेष शाखाएं आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस और मशीन लर्निंग ने भी
इस व्यापार को बढ़ाने में अपना पूरा सहयोग दिया है।
बीमारियाँ
: ट्रोलिंग को पहले भी परिभाषित किया जा चुका है। लेकिन
ट्रोलिंग से होने वाला शारीरिक प्रभाव भी है। ट्रोलिंग से निकले दो जिन्न, पहला तो
मानसिक उत्पीड़न और दूसरा अवसाद। एक और जिन्न भी है जिसका नाम है सोशल मीडिया
एडिक्शन, आसान भाषा में सोशल मीडिया की लत। इसका ट्रोलिंग से विशेष सम्बन्ध नहीं
है। ट्रोलिंग होगी तो मानसिक उत्पीड़न होना भी स्वाभाविक है। दि इंडिपेंडेंट के अनुसार,
एक वयस्क आदमी दिन में 28 बार अपना फ़ोन देखता है। दिन में औसतन 28 बार आप अपना
फ़ोन देखेंगे तो समाज से कटाव हो ही जाना है। इसके उपयोग ने आपको वश में कर दिया
जबकि यह आपके वश में होना चाहिये था।
सामाजिक कटाव से दो नुकसान होते
हैं। पहला अवसाद और दूसरा चिड़चिड़ापन। आपको लोग बिना बात कोस रहे हों और इस पर
आपका अधिकार भी न चले तो मानसिक उत्पीड़न होना ही है, जो कि ट्रोलिंग से जन्मा
बदनुमा परिणाम है। येल और कैलेफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधार्थियों की रिपोर्ट
के अनुसार, फेसबुक का अधिक उपयोग करने से शारीरिक व मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य में
कमी आती है। सोशल मीडिया यूज़र को पोस्ट पर लाइक्स में कमी आने से मानसिक
स्वास्थ्य विकार का ख़तरा भी बढ़ता है। इन प्रमुख समस्याओं के अलावा अनियमित नींद
आना और अनिद्रा भी कुछ रोग हैं जिसमें सोशल मीडिया का भारी योगदान है। समझा जा
सकता है कि सोशल मीडिया के जहाँ कुछ लाभ हैं वहाँ नुकसान भी कम नहीं।
खाई : सोशल मीडिया ने जहाँ एक ओर हमारे लिये विकास के नए रास्ते
खोले हैं, वहाँ एक सामाजिक गहराई की खाई भी हमारे बीच पैदा की है जो आने वाली सदी
को विचार शून्य में ले जाने वाली है और याद रखिये, हम इस विकास के नाम पर केवल
तालियाँ बजाने को मजबूर हैं। जिसके पास इण्टरनेट है, उसके पास सब है। लेकिन सबके
पास इण्टरनेट है क्या? भारत की एक बड़ी आबादी है, जिसको सोशल
मीडिया तो छोड़िये इण्टरनेट का पता नहीं है। सबके पास विकास के रास्ते आसान हो रहे
हैं तो उनके लिये ये कोसों दूर की बात है।
केन्द्र सरकार ने भारत के 5.5 लाख
गाँवों तक वाई-फाई माध्यम से इण्टरनेट पहुँचाने के लिये 3700 करोड़ का निवेश किया
है, जो कि एक सराहनीय कदम है। प्रधानमंत्री मोदी का यह विचार इण्टरनेट के माध्यम
से देश के सुदूर क्षेत्रों के युवाओं को समग्र विश्व में होने वाले विकास से सीखकर
कुछ अद्भुत करने के लिये अग्रसर करेगा।
आप जानते हैं कि भारत का 58 फ़ीसदी
युवा इण्टरनेट का मतलब महज़ फ़ेसबुक समझता है। आप अनुमान लगाइए कि भारत के कितने
फ़ीसदी लोग हैं, जो सोशल मीडिया के इस दायरे से बाहर हैं, जिनके जीवन में इण्टरनेट
का कोई अर्थ नहीं है। सोशल मीडिया ने इन दो समुदायों के बीच में जो फ़ासला बनाया
है, उससे एक बड़ी आबादी इस आभासी दुनिया से हाशिये पर भी जा रही है, जिसका नुकसान
आने वाले वक्त में एक बड़े भूभाग को भुगतना पड़ेगा।
आँकलन : सोशल मीडिया, हमारी सोंच के परे एक नया जहाँ जिसने समूची
दुनिया को हमारी मुट्ठी में ला खड़ा किया है। परन्तु दुर्भाग्य यह भी है कि इसके
कारण हम उस दुनिया से दूर हो गए जो हमारे आस-पास मौजूद है। इसका प्रयोग तब तक
अच्छा है, जब तक यह हमारे वश में है। निश्चित रूप से सोशल मीडिया ने हमारे लिये
विकास के नए रास्ते खोले हैं। अगर मार्क ज़करबर्ग ने फ़ेसबुक बनाया है तो उससे सीख
कर ही कश्मीर के ज़ेयान शफ़क ने काशबुक बनाया है।