Does Religion Defy Rationality???
क्या धर्म बौद्धिकता की
अवहेलना करता है?
भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं, साधुजनों के उद्धार
के लिये, दुष्कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की स्थापना के लिये
मैं पल-पल में प्रकट होता हूँ।
मैं पूरे विषय को केवल दो पंक्तियों में समाप्त कर सकता हूँ। अगर
आप मेरे हिन्दू होने, इनके मुसलमान होने, किसी अन्य के सिख होने को धर्म मानते हैं
तो हाँ, निश्चित रूप से धर्म, बौद्धिकता की अवहेलना करता है। परन्तु, यदि आप उस
व्यवस्था; जिससे होकर प्रत्येक जन वैराग्य को प्राप्त करते हैं, को धर्म मानते हैं तो
निश्चित रूप से धर्म, बौद्धिकता की अवहेलना नहीं करता। इसलिये प्रमुख विषय यह नहीं
है, कि धर्म बौद्धिकता की अवहेलना करता है या नहीं। प्रमुख विषय यह है कि आप धर्म
की संज्ञा क्या लेते हैं?
साथियों! अवहेलना की समस्या तब पैदा होती है, जब संवाद की संभावनाएँ
समाप्त हो जाती हैं, तर्कों पर वाद-विवाद खत्म हो जाता है और अपनी नीतियों को धर्म
का नाम बताकर मानव समाज पर थोपना प्रारंभ हो जाता है।
कुछ समय पहले की ही घटना है, कश्मीर की तीन लड़कियाँ थीं, किसी एक
“धर्म” से ताल्लुक रखती थीं, रॉक बैण्ड बनाने की इच्छा थी उनकी, तभी धर्म के चार
जानकार बैठे, उन्होंने कहा- ये तो धर्म के ख़िलाफ़ है और फ़तवा जारी कर दिया।
ग़ालिब और मीर की शायरी को अपनी आवाज़ में सजाने वाले ग़ुलाम अली और मेंहदी हसन,
साथ में अच्छे संगीत की प्रशंसा पर अपने आभूषण दान करने वाले अकबर पर न जाने क्या
गुज़री होगी? लेकिन इस पूरे विवाद की मूल जड़ केवल एक है, संवाद का अभाव। अपने विचार को
बिना तर्क के आधार पर थोपना।
उर्दू के महान शायर निदा फ़ाज़ली साहब का एक शे’र है-
घर से बहुत दूर है मस्जिद, चलो यूँ करें।
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।
एक बार फिर से फ़तवा
फैक्ट्री से एक फ़तवा निकलता है। कहीं पर जाकर देख लीजिये आप। दलितों को किसी
निश्चित कुएँ से पानी न पीने देना, लड़कियों की वेशभूषा को लेकर संस्कार और धर्म
की दुहाई देना, ये और तमाम ऐसी बातें, जिनमें धर्म का नाम लेकर रोक लगा दी जाती है
और तर्क से हटकर अपनी बातें थोपी जाती हैं, उन सभी का मूल कारण है, संवाद का अभाव।
मैं नहीं कहता कि क़ुरान शरीफ़ में जो भी कुछ लिखा है, उसे मत
मानिये, बाइबिल या गीता में जो कुछ लिखा है, उसे मत मानिये। मैं आपसे सिर्फ़ इतना
कहना चाहता हूँ कि आप केवल उन बातों को मानिये, जिन पर आपका स्वयं का यक़ीन है।
यही कहना बुद्ध का था, यही कहना स्वामी विवेकानन्द का था।
साथियों! एक बड़ी समस्या अंधविश्वास
की भी है। एक धार्मिक पुस्तक में पृथ्वी को ब्रह्माण्ड का केन्द्र बताया। एक
वैज्ञानिक ने प्रयोगों के आधार पर सिद्ध किया कि पृथ्वी तो ब्रह्माण्ड का केन्द्र
है ही नहीं। वह तो एक ग्रह है, जो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाता है। उस महान
वैज्ञानिक ने इतना कहा था, कि उस पर धार्मिक यातनाएँ दी गईं। हमारे भारत में अगर
इस धर्म पर व्यंग्य करिये, तो समाज के पैरोकार आप पर दबाव डालने लगते हैं। यही
कारण है कि कबीर के लिये कहा जाता है कि अगर वह इस वक़्त होते तो उनके ऊपर न जाने
कितने मुक़दमें लगे होते, भावनाएँ आहत करने के। यही दो बातें हैं जो समाज में
अंधविश्वास को बढ़ावा देती हैं, जिससे तर्क कमज़ोर तो होता ही है, समाज भी कमज़ोर
होता है।
अतः अपने व्याख्यान के अन्त में
मैं केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि धर्म बना है तो इंसान को सही मार्ग बताने के
लिये, उसे सही मार्ग पर चलाने के लिये। अगर ऐसा धर्म, जो आपको ग़लत रास्ते पर ले
जाए, या उसमें तर्क के लिये कोई जगह न हो तो यह धर्म, धर्म नहीं, बल्कि इसके इतर
कुछ और है।