Violence in Modern Society
समकालीन दुनिया में हिंसा
“हिंसा से निर्मित
भूसंस्कृति, मानवीय होगी न, मुझे भय”
महात्मा गांधी की विचारधारा
से भरी यह प्रेरक पंक्ति भारत की वैचारिक और मौलिक स्थिति तथा नवीन भारत में कार्य
करने से पहले होने वाली असमंजसता को प्रस्तुत करती है और विचार करने पर मजबूर करती है। प्रस्तुत समय, भारत के
लिये विचार विभेद में संघर्ष तथा छटपटाहट के साथ जवाबदेही का है। पाकिस्तान की ओर
से होती गोलीबारी और उसका प्रत्युत्तर, बाद में उरी हमले में सेना की कार्रवाई से
एक ओर भारत के शौर्य का दर्शन होता है, वहीं दूसरी ओर नेहरू द्वारा दिये गए पंचशील
सिद्धान्तों पर भी कुठाराघात होता है। प्रस्तुत दो विषयों में से किसी एक विषय की
राह पकड़ना भारत के लिये कदापि सरल नहीं है। एक दिशा तो वह है, जो भारत की
संस्कृति को बताती है; दूसरी वह है जो ताकत को बताती है। भारत की संस्कृति में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण
स्थान रहा है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की बात करें, या फिर
भारत में जन्मे अन्य धर्मों की, सभी में अहिंसा का मार्ग ही सत्य का मार्ग बताया
गया है।
अब चर्चा करते हैं समकालीन दुनिया
में हिंसा की। जैसा कि हम जानते हैं, विश्व में आतंकवाद पनपता जा रहा है। आईएसआईएस
जैसे लड़ाकू संगठन, एक धर्म को स्वयं से जोड़कर पूरे विश्व में धर्म के नाम से
आतंकवाद को प्रशस्त कर रहे हैं, परन्तु आतंकवाद के विरोध में बढ़ती एकजुटता से
कहीं न कहीं अहिंसा को भी बल मिला है। विश्व के ढेर सारे देशों का युद्ध की
परिस्थिति में परमाणु हथियार उपयोग न करने का संकल्प अर्थात् एनपीटी पर हस्ताक्षर
भी, विश्व में अहिंसा के लिये बढ़ती एकजुटता का प्रतीक है। यहाँ तक कि, संपोषित
विकास के सत्रह लक्ष्यों में से एक लक्ष्य विश्व को हिंसा से मुक्त बनाने का है,
जिसे 2030 तक संयुक्त राष्ट्र को हासिल करना है।
यदि हम बात करें वैश्विक स्तर की,
तो भारत संपूर्ण विश्व के साथ अहिंसा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा है,
परन्तु बात करें प्रादेशिक हालातों की, तो स्थिति बहुत विकट है। पिछले कुछ समय में
दंगों में होने वाली वृद्धि, सामाजिक सद्भाव में कमी, एक नए विवाद को जन्म दे रही
है। प्रस्तुत विषय पर भी समीचीन विचार करने की आवश्यकता है। समकालीन दुनिया में
देशों के मध्य परस्पर हिंसा में कमी आई है, यह आप आँकड़ों और इतिहास पर नज़र डालकर
पता कर सकते हैं, परन्तु आन्तरिक गतिविधियों में हिंसा का स्थान कहीं न कहीं बढ़ा
है। पारिवारिक अन्तर्द्वन्द्व, सामाजिक कटुता का परिणाम वैश्विक स्तर पर दिखाई
नहीं देता, परन्तु आन्तरिक रूप से देश को बर्बाद कर सकता है। मामला चाहे 1984 के
सिख दंगों का हो, गुजरात दंगों का हो, या फिर पारिवारिक हत्याओं का।
दुनिया के अन्दर मात्र देश ही
नहीं आते; प्रदेश, समाज और घर
भी आते हैं। पूरी दुनिया में कहने को तो भारत अहिंसा की चेतना को पूरे विश्व में
फैलाने वाला देश है, परन्तु नज़र डालें भारत में होने वाली हिंसा के आँकड़ों पर,
तो चिराग तले अँधेरा वाली बात होती दिखती है। अतः आवश्यक है, कि अन्तर्राष्ट्रीय
दिखाने की तर्ज में जड़त्व को न छोड़ा जाए, मूलभावना का भी ध्यान रखा जाए। भले ही
परिणाम कष्टकारी होंगे, परन्तु आने वाला भविष्य व समाज, दोनों ही बेहतर होंगे।
मंगलम् भारत