Is the pace of Growth and Development determined by the Quality of Governance?
क्या विकास और प्रगति की
गति, शासन की गुणवत्ता पर निर्भर करती है?
बदल रही है ज़िन्दगी, साल
बदल रहे हैं।
बदल रहा है देश, यहाँ के
हाल बदल रहे हैं।
लेकिन नहीं बदल रहे हमारे
सामने, कुछ पुराने बवाल आज भी हैं।
ज़िन्दगी तो गुज़र रही है
रफ़्ता रफ़्ता, लेकिन कुछ तीख़े सवाल आज भी हैं।
पिछले सत्तर सालों में भारत में
होने वाले परिवर्तन का सीधा असर हमारी विचारधाराओं से होता हुआ चर्चाओं और बहसों
तक हुआ है। आज से दस साल पहले, बीस साल पहले हम चर्चा किया करते थे कि क्या गरीबी
सच में कम हुई? क्या प्रशासन अपना
काम नहीं कर रहा है? लेकिन आज हम उस मुहाने पर खड़े हैं, जहाँ से विकास और
प्रगति का पथ प्रशस्त होता साफ़ दृष्टिगोचर होता है।
अगर आप मुझसे पूछिये कि क्या
विकास और प्रगति की गति, शासन की गुणवत्ता पर निर्भर करती है? तो मैं कहूँगा हाँ, निश्चित
रूप से; विकास व प्रगति तय
करने में शासन का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
लेकिन मैं आपसे पूछना चाहता हूँ,
कि क्या सिर्फ़ शासन की गुणवत्ता सुधार कर विकास एवं प्रगति संभव है? नहीं, बिल्कुल भी नहीं,
कदापि नहीं।
मैं सलाम करता हूँ भारत के उन
मेहनकश किसानों को, ज़मीन से धान उगाते उन गरीब धनवानों को, जिनकी आबादी भारत की
जनसंख्या की एक चौथाई भर है, जिन्हें सरकार से कोई विशेष मदद नहीं मिलती। लेकिन उस
वक़्त भी, जब पूरा विश्व आर्थिक मन्दी के दौर से गुज़र रहा था, सिर्फ़ वो ही थे,
जिन्होंने समूचे हिन्दुस्तान की जीडीपी को सँभाल करके रखा।
मैं याद दिलाना चाहूँगा प्रो0 सी0
एन0 आर0 राव के उस कथन को, जिसमें वह कहते हैं कि सरकार विज्ञान के क्षेत्र में
आवश्यकता का 20% आर्थिक सहयोग ही
करती है। लेकिन इसके बाद भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 2008 की रिपोर्ट के अनुसार नासा
में भारतीय वैज्ञानिकों की संख्या 36% है, अमेरिका में भारतीय डॉक्टरों की संख्या 38% है।
अब मैं आता हूँ उस तीसरे बिन्दु
पर, जिस पर शासन उम्मीद से कहीं ज़्यादा पैसा खर्च करता है, जो कि भारत को प्रगति
के पथ से कोसों दूर ले जाता है।
उसने ख़बर पहुँचाई, तुम तक
ख़बर पहुँची।
पर ये ख़बर वो ख़बर न थी,
जो तुम्हें ख़बरदार कर सके।
जनाब ये ख़बर वो ख़बर थी,
जो ख़बर को मसालेदार कर सके।
और माफ़ करिये दोस्तों
जब ज़्यादा मसाला पेट में
जाए तो पेट गड़बड़ा जाता है।
यही कारण है, गुणवत्ता की
जाँच में ख़बरिया हड़बड़ा जाता है।
हम समझते हैं, प्रशासन बड़ा
काम कर रहा है जी।
धूल फाँकती फाइलें देखिये
जाकर, प्रशासन तो आराम कर रहा है जी।
साथियों। विकास और प्रगति की गति,
शासन की गुणवत्ता पर आधारित होती है, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण पहलू यही भी है, कि
शासन अपना पूरा ज़ोर लगाता है, कि ख़बरों को दलाली के दलदल में डुबो सके।
अब तक 3,703 करोड़ रूपए का बजट तय
कर चुकी है सरकार, गंगा की सफ़ाई के लिये। 2,958 करोड़ रूपए व्यय कर चुकी है
सरकार, गंगा की सफ़ाई के लिये। लेकिन बनारस के घाटों से गुज़रता हुआ पानी आज भी
प्रदूषित और अस्वच्छ है। इसकी ख़बर न मीडिया को है, न ही जनता को।
सिर्फ़ नारों में बदल रहा है हिन्दोस्तान।
सोने की चिड़िया बनने से कोसों दूर है।
लोकतंत्र जकड़ा हुआ है ख़ुद की ही बेड़ियों में।
विकास सिर्फ़ ख़बरों में है, इतना मजबूर है।
दोस्तों। सिर्फ़ शासन ही नहीं है,
जो विकास का पथ तय करता है। ढेर सारे एनजीओ व स्वायत्त संस्थाएँ हैं, जो अपने स्तर
पर बहुत अच्छा काम कर रही हैं। चाहे भारत रत्न कैलाश सत्यार्थी का एनजीओ हो, जिसने
अब तक 80,000 से ज़्यादा बच्चों का बचपन छिनने से बचाया है, या फिर समाजसेवी अन्ना
हज़ारे हों, जिन्होंने गाँव रालेगण सिद्धि को महाराष्ट्र के सर्वाधिक विकसित
गाँवों की श्रेणी में पहुँचाया, या फिर अन्य संस्थाएँ, जो कि साहित्य व संस्कृति
के लिये अपना कार्य कर रही हैं, जिन्हें न तो शासन से कोई विशेष मदद मिलती है और
कई बार तो समाज को उनके होने की जानकारी नहीं मिलती।
इस पूरे विमर्श से सिर्फ़ एक बात
निकलकर आती है। सिर्फ़ महेन्द्र सिंह धोनी की अच्छी कप्तानी से कुछ नहीं होगा,
कोहली को भी अपना बल्ला घुमाना पड़ेगा, रोहित को भी शतक जमाना पड़ेगा, अश्विन को
भी फिरकी नचानी पड़ेगी, जडेजा को भी चौका बचाना पड़ेगा। तब जीतेगा हिन्दुस्तान, तब
जीतेगी टीम इंडिया।
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मंगलम् भारत