मीडिया, लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ के रूप में अपने कर्त्तव्यों का सही निर्वाह नहीं कर रहा है।

(पुराना लेख, अब लिखने का मौका लगा।)

उसूल पर जहाँ आँच आए, टकराना ज़रूरी है। 
      जो हो ज़िन्दा तो ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है।।(वसीम बरेलवी)

          वसीम बरेलवी का लिखा ये शेर मीडिया पर ठीक तरह से लागू होता है। आज उन लोगों ने ही मीडिया को लोकतंत्र के कठघरे में खड़ा कर दिया है, जिनको मीडिया की बढ़ती सफलता फूटी आँख नहीं सुहाती। वे मीडिया की  स्वतन्त्रता से जलते हैं, और जब मीडिया के सवालों का जवाब नहीं होता, तो पूरे मीडिया को बिकाऊ बोलकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।


          विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद लोकतंत्र की शुचिता को अगर किसी ने बचा कर रखा है, तो वह है मीडिया। मीडिया ठीक उसी तरह लोकतंत्र के लिये ज़रूरी है, जितना सरकार। आम जनता और सरकार के बीच संवाद का ऑपरेटिंग सिस्टम है मीडिया।


          समय-समय पर  मीडिया ही आम आदमी की आवाज़ बनता जा रहा है तथा राष्ट्रनिर्माण में अपना सबसे बड़ा योगदान देता रहा है। एक 72 वर्षीय बुज़ुर्ग अन्ना हज़ारे की जोशीली आवाज़ से निकलती भारत माता की जय की हुंकार और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई, जो जन-जन की आवाज़ बनी, उसकी आवाज़ बना है मीडिया। रोहित वेमूला की आत्महत्या की आवाज़ बना है ये मीडिया। जब निर्भया काण्ड हुआ, तो पूरे देश में भड़कते आक्रोश की आवाज़ बना है ये मीडिया। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोध की पनपती हरकतों को पुलिस तक पहुँचाने की आवाज़ बना है मीडिया। नेता और पुलिस तो घटना के बाद पहुँचते हैं तफ़्तीश करने और राजनीतिक रोटियाँ सेंकने, वो मीडिया ही होता है जो ख़बर को जन-जन तक पहुँचाता है।


          फिर कैसे कहा जा सकता है कि मीडिया, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपने कर्त्तव्यों का सही निर्वाह नहीं कर रहा है।

          मैं नहीं कहता कि मीडिया में, पत्रकारिता में सभी लोग अच्छे हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो TRP रोग से ग्रसित हैं, वो हमेशा बहसों में चिल्लाते हुए मिलेंगे, कुछ लोग राजनीतिक दलों की दलाली करते हुए मिलेंगे। लेकिन ऐसे दो चार छुटभैये पत्रकारों के कारण पूरी पत्रकारिता को ख़राब बोल देना कितना ठीक है?



          हनुमंथप्पा जब 25 फीट की गहराई से ज़िन्दा वापस आए थे, तो खुशी की पहली ख़बर मीडिया ने ही दिखाई थी। उत्तराखण्ड जब बाढ़ की त्रासदी से गुज़र रहा था, तो केन्द्र के बहरे कानों तक ख़बर मीडिया ने ही पहुँचाई थी। आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के लोगों को चक्रवाती तूफ़ान से आगाह करने की ख़बरें तो मीडिया ने ही दिखाई थीं। उसी मीडिया के ऊपर प्रश्नचिह्न लगाने की बात की जा रही है।

          मैं नहीं मानता कि मीडिया कि मीडिया अपने स्वर्णिम काल में चल रहा  है, उसमें सुधार की आवश्यकता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के मुद्दे पर जिन चैनलों ने कटे- छँटे वीडियो दिखाए, उन्होंने बाद में माफ़ी भी माँगी और सही वीडियो का प्रसारण भी किया।



          अगर इस देश में सत्य का साथ देना अपराध है, अगर देश के भ्रष्टाचारियों को देश के सामने बेइज़्ज़त करना अपराध है, अगर लोकतंत्र के लोगों पर, जिन्होंने इस देश को दुकान समझ रखा है, उनके विरोध में अपनी आवाज़ उठाना अपराध है, तो मैं गर्व के साथ कहता हूँ कि मीडिया अपराधी है और यह अपराध वह बार-बार करता रहेगा। हमेशा सच को पर्दे के भीतर से निकाल कर लाता रहेगा।

सच कहने की हिम्मत रखते हैं हम, दुनियादारी की कला नहीं रखते।
आवाज़ तल्ख़ है, तीखी है तो है, हम दो सुर वाला गला नहीं रखते।।(हरिओम पँवार)

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