मेरा पहला सोलो ट्रैवल

2019 बीत गया... एक सुखद सपने की तरह। किसी बड़े आदमी ने कहा है कि साल तब तक नहीं बीतता, जब तक पुरानी यादें साथ रहती हैं। अगर ये बात है तो मैं अभी भी 2019 में ही जी रहा हूँ। और कुछ यादें तो 2020 में भी साथ रहेंगी... जैसे मेरा पहला सोलो ट्रैवल।
Photo of सोलो ट्रैवल कैसे मुझे ख़ुद के क़रीब ले आया... 1/7 by Manglam Bhaarat
श्रेयः आलोक कुमार सिंह
एक बेपरवाह यात्री होना ही सोलो ट्रैवलर की पहचान है। दुनिया के सब सामाजिक मानकों की धज्जियाँ उड़ाते हुए घूमता है सोलो ट्रैवलर। किसी लम्हे में वो 'Into The Wild' का दुनिया की लफंडरबाजी से ऊब चुका हीरो होता है, तो किसी लम्हे में बहुत समझदार यायावर। उसके अपने मानक होते हैं। यही मानक उसे हर मंज़िल फतह करने का हौसला देते हैं, जो दूसरों के लिए पहाड़ से कठिन होते हैं। अगर 2020 को यादगार बनाना है तो एक सोलो ट्रिप आप भी ट्राय करो।
सबसे पहले बोलने वाला आज चुप है...
तो कहानी शुरू होती है मेरे एक मित्र अतिन सर की शादी से। शादी भी जीवन का पड़ाव है। समय रहते उसे भी पूरा हो जाना चाहिए। मैंने शादी को बहुत नितान्त व्यवस्था की तरह से देखा है जहाँ दो लोग एक दूसरे की निजी ज़िन्दगी में घुसकर शुभ विवाह का उदाहरण पेश करते हैं। शारीरिक ज़रूरतों और सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने की ज़द में एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई है जिसमें आप संभवतः ये दो आज़ादियाँ पा लेते हो, लेकिन बाक़ी सभी पैमानों में परतंत्र हो जाते हो।
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शादी की रस्में हो रही थीं। एक पल अतिन सर ने मेरी ओर देखा, उनकी आँखों में वो ठहराव मैं बयान नहीं कर सकता। शायद वो ऐसा है जैसे दिन भर कड़ी दुपहरी में घूमने के बाद आप घर आते हो। या फिर सदियों बाद आत्मीय रूप संतुष्ट हो जाने का एहसास। आप ये भी कह सकते हो कि ये सब मेरी मनगढंत कल्पना है, लेकिन शादी को लेकर जो भी मैं सोचता था, वो सब उन चार सेकेण्ड में झुठला दिया गया था। नुक्कड़ों पर बैठकर शादी ब्याह दोस्ती यारी पर जितनी बहसें मैंने की थीं, जो पंचायत बिठाई थीं। हर बहस जीतने के बाद भी उन चार सेकेण्ड में मैं सब हार गया। गोरखपुर की शादी में महिलाएँ मंगलगीत गा रही थीं। माहौल पूरी तरह से पारिवारिक हो गया था। मैं समझ गया कि शादी बहुत ही जटिल, बहुत ही सांस्कृतिक व्यवस्था है, जिसको समझ पाने में मैं अभी बच्चा हूँ।
ख़ुद को चुनौती देना ही सबसे बड़ी चुनौती है...
सोलो ट्रैवलर दुनिया के सामने विरोध की दीवार बनकर नहीं खड़ा होता, बल्कि वो ख़ुद को ही चुनौती दे रहा होता है। हर लम्हें में ख़ुद ही को आज़माता है वो।
सुबह साढ़े छः बजे हम लोग घर आए। मौसम सर्द था और ऊपर से बारिश हो रही थी। इस वक़्त तक मुझे अपना बैग लेकर निकल जाना था। लेकिन इंतज़ार किया बारिश के थमने का और तीन घंटे की नींद मार ली।
तेज़ बारिश थम चुकी थी, पर पानी अब भी मद्धम मद्धम बरस रहा था। लेकिन हमें तो चलना था, आगे बढ़ना था। एक दोस्त ने वादा किया था ट्रिप पर साथ चलने का, लेकिन मैं मन बना के आया था कि वो साथ नहीं गया, तो भी निकलना है। और फिर वो नहीं आया। ख़ैर... गोरखपुर से सनौली 94 किमी0 की दूरी है। बस कुछ दस मिनट चलकर रुक गई।
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आगे एक ट्रक पलट गया था। कुल मिलाकर 94 किमी0 का जो सफ़र दो घंटे में पूरा होता है, वो 6 घंटे में पूरा हुआ। बीच में कई बार ख़्याल आता है कि वापस हो लें क्या। फिर लगता है पीछे जो दुनिया छूट चुकी है, वहाँ वो ख़ुशी न होगी, सुकून न होगा। यही बात खाए जाएगी कि शायद दो कदम आगे बढ़ा लेते, तो वो देखते जिसकी दूसरे साथियों ने बस ख़्वाहिश की है।
अकेले कैसे घूमा जाए...
अकेले घूमने एक नज़र में तो नीरस लगता है। कि देखो... अकेले घूमने निकल गए। लेकिन सच मानिए, उनके लिए तो ये दुनिया ही जन्नत है जिनको ख़ुद का साथ पसन्द है। वो अकेले भी आनन्द में रहते हैं। सबसे मुश्किल होता है इस मोह से निकल पाना कि दुनिया आपके बारे में अच्छा ही सोचे। लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि दुनिया को जो सोचना है, वो सोच के ही रहेगी। इसलिए उस दुनिया के बारे में सोच कर कुछ ख़ास फ़ायदा है नहीं।
चोर उचक्के सामान छीन न लें!
एक दूसरा डर भी है कि कहीं कोई चोर उचक्का सामान न छीन ले। किसी फकीर घुमक्कड़ के पास ऐसा कुछ नहीं होता जो छीना जा सके। तो मेरे पास एक बैग, कुछ कपड़े और जूतों के सिवा कुछ भी नहीं। ज़्यादातर चोर बड़ा हाथ मारने का प्लान करते हैं। वो आपको इसलिए नहीं पकड़ते कि इससे कुछ ऐसा मिलेगा ही नहीं, तो बिना बात रिस्क क्यों लिया जाए।
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श्रेयः आलोक कुमार सिंह
सच कहूँ... तो मैं भी इस डर से अभी तक नहीं निकल पाया। लेकिन ख़बरें पढ़कर इतना अन्दाज़ा तो है कि नेपाल में छीना झपटी, लूट-पाट विरले ही होती है। तो सोलो ट्रिप की शुरुआत नेपाल से करना बेहद आसान था।
तस्वीरें कम हैं लेकिन अनुभव बहुत ज़्यादा...
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सोलो ट्रैवल करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। लेकिन यही आपको आन्तरिक रूप से बेहद ताक़तवर बनाता है। अजनबियों से अच्छे दोस्त चुनना सिखाता है। माना कि तस्वीरें कम हैं मेरे पास लेकिन जो तजुर्बा है, वो वाक़ई में बाक़ी दुनिया से जुदा है।
सक्सेस रेट 100%
मैं कई मर्तबा अपने दोस्तों या फिर परिवार के साथ सफ़र पर गया हूँ। कभी किसी सफ़र में कोई सोता रह जाता था, या फिर किसी की तबीअत ख़राब हो जाया करती थी। या फिर कुछ ज़िद्दी लोगों के भरोसे वो काम भी करने पड़ते थे, जिनकी इच्छा नहीं है। पैसे के ऊपर जो बवाल मचता है, वो तो बताने की ज़रूरत ही नहीं है। दोस्ती तक टूट जाया करती है कभी तो।
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पहली बार ऐसा हुआ कि जितनी भी जगह घूमने का प्लान बनाया था मैंने वो सब बिल्कुल सही समय पर पूरा हुआ। जो गिनी चुनी दिक्कत पहले दिन बस पलटने की वजह से हुई, उसका निपटारा भी मैंने सफ़र का प्लान बदलकर कर लिया। पहले दिन नेपाल पहुँचने, दूसरे दिन पोखरा देखने, तीसरे दिन काठमांडू घूमने और आख़िरी सुबह लुम्बिनी में हुई। जितने मंदिर घूमने थे, सारे घूमे। जितनी ख़ूबसूरती देखनी थी, वो भी देखी। वो भी बिल्कुल निश्चित समय पर।
दुनिया वैसी नहींं, जैसा बोलकर डराया जाता है!
मुझे नहीं मालूम, लेकिन आज तक मेरे साथ कभी सफ़र में बुरा बर्ताव नहीं हुआ। हमेशा अच्छे ही लोग मिले। पोखरा तक जाने वाली बस में दो साथी मिले, आलोक जी और मनीष जी। दोनों के साथ पोखरा घूमा। तस्वीरें तक साझा कीं। शायद उन्होंने पहली बार गूगल ड्राइव पर तस्वीरें भेजी हों।
Photo of सोलो ट्रैवल कैसे मुझे ख़ुद के क़रीब ले आया... 7/7 by Manglam Bhaarat
श्रेयः आलोक कुमार सिंह
काठमांडू तक सफ़र में एक साथी मिला अनिम। नेपाल की पूरी राजनीति, प्यार, मोहब्बत, गाने, विदेश का प्रभाव, भारतीयों को लेकर नेपाल के विचार और नेपाल के ऊपर उसके विचार, दुनिया के जितने सवाल हो सकते थे, सारे जवाब मिले उनसे।
इसके बाद एक लड़की से भी मुलाक़ात हुई। स्वयंभू मंदिर घुमाया उन्होंने। और सफ़र के आख़िरी पड़ाव लुम्बिनी में भी एक परिवार मिल गया, जिनके साथ भगवान बुद्ध के दर्शन किये मैंने।
कुल मिलाकर बात ऐसी है कि लोगों को पहचानिए, बहुत उम्मीद मत रखिए। अगर अकेले सफ़र पर हैं तो वो सब कुछ देख कर ख़ुश हो सकते हैं जो किसी के साथ देखकर होते। ज़रूरत है तो नज़रिया बदलने की।

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