वो शाम है अब तक याद मुझे...
सितम्बर का महीना था, शाम का वक़्त, हवाओं में मद्धम सी ठंड घुलने लगी थी, हल्के हल्के बादल आसमान पर परत दर परत बनकर घूम रहे थे। मैं LPU के गेट के बाहर अपने दोस्त भुवन का इंतज़ार कर रहा था। उसने कॉल पर बोला कि, “Bhai, wait for me, I am coming in 15 mins.”
तब तक मैं गेट पर आते जाते लोगों को देख रहा था। यहाँ की दुनिया सच में ग़ज़ब है। एक दिन में इतनी आलीशान गाड़ियाँ शायद मैंने पहली बार देखी होंगी। मर्सिडीज़, फ़रारी जो नाम लो, वो गाड़ी इतनी देर में मैंने देख ली थी। यूँ ही इस जगह का नाम फ़ेमस नहीं है। ख़ैर...
ढेर सारे लोगों के गुज़रते हुए तभी किसी पल में मेरी नज़र एक बच्ची पर पड़ी। बमुश्किल 2 साल की उम्र। सड़क पर मिट्टी से खेलती हुई एक अबोध बच्ची। अपने में बेहद ख़ुश, निर्मोही। मिट्टी ही मानो उसका खिलौना हो। एक दो साल की मासूम बालिका, जो आने वाली त्रासदी से बिल्कुल अनजान है। उसके माँ बाप सड़क के किनारे टीन की दीवारों की बनी झोपड़ी में रहते हैं। छत भी टीन की है, जिस पर बारिश से बचने के लिए काली पन्नी की चादर चस्पा है।
एक बच्ची, जो कुछ साल बाद बड़ी होकर अपने माँ बाप की तरह मज़दूर बनेगी। फिर उसके बच्चे मज़दूर बनेंगे और फिर उसके बच्चे। मेरा जी आया कि मैं पास जाकर उसकी चंचल आँखों की कुछ तस्वीरें खींच लूँ, तो उसकी बड़ी बहन दौड़ती हुई आई और बोली, “हमें दस रुपए दो फिर चाहे इसकी जितनी तस्वीरें खींचो।“ बहन की उम्र क़रीब 10-12 बरस के आस-पास होगी। मैंने झट से दस रुपए का सिक्का उसको थमा दिया। उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। 10 रुपए देखकर बच्चे ख़ुश हो जाते हैं और आप शायद थोड़े से संतुष्ट।
मैंने मोबाइल से कुछ तस्वीरें खीचीं। तस्वीरों में कुछ ख़ास नहीं था, बच्ची में ही शायद कुछ ख़ास हो। लेकिन उस लम्हे में बहुत कुछ ख़ास था। एक विहंगम दृश्य, सामने LPU का गेट, वहाँ से गुज़रते सैकड़ों अमीर परिवारों के बच्चे और उनके सामने खेलती एक अबोध बच्ची, जिसकी आँखों को ये भी नहीं पता था कि कैमरा होता क्या है। एक तस्वीर में दो हिन्दुस्तान। वो इतनी अनभिज्ञता से कैमरे को देख रही थी, जैसे पहली बार कैमरा देखा हो।
इंसान जब ख़ुद में ऐसे ही शर्मसार होता है, तो वो अपनी शर्म छिपाने के लिए कृपाएँ करने लगता है, पैसे बाँटता फिरता है। अपनी आत्मा ज़लील न हो, इसलिए दूसरों पर एहसान करने लगता है। मैंने भी उसको पाँच रुपए वाला बिस्कुट दिला दिया। मुस्कुराहट भरे लहजे में वो बिस्कुट का पैकेट लेकर अपनी दीदी के पास दौड़ पड़ी।
लगभग दो साल हो चुके हैं इस तस्वीर को। कोरोना कैसा गुज़रा होगा इस परिवार पर। जब भी इन्हें देखता हूँ, ख़ुद को हर बार पहले से कुछ ख़ाली महसूस करता हूँ, असहाय भी। ये जानकर कि कल वो किसी घर में 30 रुपए महीने और खाने की शर्त पर सारे छोटे मोटे काम कर रही होगी। और उसके बगल वाले कमरे में बैठकर हम बँधुआ मज़दूरी पर दुनिया को कोस रहे होंगे।
- मंगलम् भारत