Unifests are organized only for Competition; not for Peace, Development and Talent.
युवा महोत्सव का आयोजन शान्ति, विकास एवं प्रतिभा के लिये
नहीं होता; सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा के लिये होता है।
शुरू हुआ एक नया उत्सव, शुरू हुई एक खोज नई
मंचों को जीवित करती, प्रतिभाएँ दिखीं हर रोज़ नई
पर आओ अब बात करें, जो भटक गए पथ से उनकी
जो हार जीत ही जीते हैं, है बेड़ी जिनके जीवन की
भारत के उत्तरी छोर से लेकर दक्षिणी छोर तक के विद्यार्थी आते हैं इस युवा महोत्सव में। प्रतिस्पर्धा का एक बड़ा नामचीन मंच बन चुका है हमारा ये युवा महोत्सव। परन्तु विडंबना इतनी है कि आज ये मंच सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा का पर्याय बन चुका है; शान्ति, विकास एवं प्रतिभा जैसी बातें समाज के मध्य दृष्टिगोचर होती प्रतीत नहीं होतीं।
यदि ये मंच सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा के संपोषण के लिये बना है, तो फिर क्या कारण है कि प्रतिस्पर्धा के पश्चात् सैकड़ों प्रतिभाएँ स्वयं को निखारने की बजाय छात्रावास के कमरों में आराम करती हुई दिखाई देती हैं।
यदि कुछ पलों के लिये मान भी लिया जाए कि इन उत्सवों का आयोजन सिर्फ़ विकास व शान्ति के लिये होता है, तो फिर क्यों उठती हैं निर्णायकों पर उंगलियाँ, क्यों खड़ा किया जाता है हर बार उनको कठघरे में, क्यों लगता है उनकी निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न? इन सभी प्रश्नों का सिर्फ़ एक ही उत्तर है
जीतना, सिर्फ़ जीतना लक्ष्य बन गया है
सीखने से हमारा कोई वास्ता नहीं रहा
परिणाम बन गए हैं योग्यता के प्रमाण
ख़ुद को श्रेष्ठ दिखाने का दूसरा रास्ता नहीं रहा
जितने भी विद्यार्थी इन युवा महोत्सवों में शरीक होते हैं, उनको अपने विश्वविद्यालयों में भी शान्ति, विकास का पाठ पढ़ने को मिलता है, साथ ही उनकी प्रतिभा में निखार भी विश्वविद्यालयों में होता है। अगर सभी विश्वविद्यालयों में शान्ति, विकास व प्रतिभा को निखारने का काम किया जाता है, तो क्या आवश्यकता है इन युवा महोत्सवों की? युवा महोत्सवों का महत्त्व इसी बात से पता चलता है कि यही वो मंच है, जो परिचायक है संपोषित प्रतिस्पर्धा का, जो उदाहरण है वैचारिक मंथन का, जो प्रमाण है स्वयं के आँकलन का।
यह कथन सत्य है कि एकलव्य की प्रतिभा ही थी जिसके दम पर वह दाएँ हाथ के अँगूठे के बिना भी अपनी उँगलियों से धनुष चलाना सीख गया, परन्तु मुझे याद आती है गुरू द्रोणाचार्य के मस्तिष्क में प्रस्फुटित वह मानसिक प्रतिस्पर्धा, जो अन्ततः एकलव्य के अँगूठे को काटने का कारण बनी।
आपने कई सारे लोगों को कहते हुए सुना होगा कि कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप आईआईटी के पढ़े हैं या फिर किसी अन्य प्रौद्योगिकी संस्थान के। अन्ततः हुनर काम आता है, हुनर। बिल्कुल सत्य है, परन्तु अर्धसत्य है।
ये सत्य, वो सत्य नहीं; जो अन्तर्मन का हिस्सा है
बल्कि है ये खीझ, जो हार से जागा किस्सा है
नहीं मिली जिन्हें आईआईटी, वो ऐसी बातें करते हैं
जब अंगूर नहीं मिलते इनको, तो दिखते इनको खट्टे हैं
ये कथन कहने वालों की संख्या अधिकांशतः उन जनसमूहों से आती है, जिन्हें आईआईटी नहीं मिली। असल में ऐसे लोग हुनर के पक्ष में नहीं खड़े, बल्कि अपनी हार की पीड़ा को ख़त्म करने के लिये ऐसी बातें करते हैं।
प्रतिस्पर्धा तो आवश्यक है। प्रतिस्पर्धा तो रामायण के काल में भी थी, प्रतिस्पर्धा तो महाभारत के काल में भी थी। प्रतिस्पर्धा तो दूसरों से भी है, प्रतिस्पर्धा तो स्वयं से भी है। अगर ये प्रतिस्पर्धा ख़त्म हो गई, तो इन युवा महोत्सवों का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य भी ख़त्म हो जाएगा। इसलिये इन प्रतिस्पर्धाओं का होना ज़रूरी है। परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि हम सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा के लिये जिएँ। अगर इस प्रतिस्पर्धा को हम स्वीकार नहीं कर सकते, तो इस प्रतिस्पर्धा को नकार भी नहीं सकते।
रणभूमि का मंच न बने ये महोत्सव
विचारों का आदान-प्रदान भी दिखे
सीखने की प्रतिस्पर्धा हो, न कि घुड़दौड़
प्रतिभाओं का बेहतर हिन्दुस्तान भी दिखे
Note: This is the topic of my debate competition. I have other personal opinions regarding Unifests.