ग़ालिब - सुख़न से आगे
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयाँ और
महज़ हिन्दुस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया की उर्दू फ़ारसी शाइरी में ग़ालिब एक मील का पत्थर हैं। इन ज़बानों को पसन्द करने वाला शायद ही कोई हो, जो ग़ालिब को नहीं जानता। ग़ालिब ख़ुद भी यही बात कहते थे, कि दुनिया हमको भले अभी कोई तवज्जो न दे, लेकिन हमारे मरने के बाद हमारे शेर गुनगुनाए जाएँगे।
आज हम बात करेंगे उर्दू और फ़ारसी के महबूब शायर, मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खाँ उर्फ़ ग़ालिब की।
मिर्ज़ा मूलतः मुग़लों के खानदान से ताल्लुक़ रखते हैं। जब तुर्की में सेजलुक राजाओं का अन्त हो रहा था, तो उनके पूर्वज उज़बेकिस्तान से समरकन्द आ गए। समरकन्द में जिस वक़्त अहमद शाह का राज था, उसी दौर में ग़ालिब के दादा मिर्ज़ा क़ोक़न बेग तत्कालीन भारत में आए। लाहौर, दिल्ली और जयपुर में उन्होंने काम किया और आख़िर में दिल्ली के नज़दीक आगरा में बस गए।
जब दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़ों पर मुग़लों का शासन जा रहा था, और अंग्रेज़ अपने पाँव जमाने की पूरी कोशिश कर रहे थे, ठीक उसी दौर में दिसम्बर 27, सन् 1797 को मिर्ज़ा असदुल्ला बेग ख़ाँ का जन्म हुआ। 5 साल की उम्र रही, जब उनके पिता का देहान्त हो गया। उसके बाद चाचा ने देखभाल की और 9 साल की उम्र में चाचा भी नहीं रहे।
13 साल की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख़्श की बेटी उमराव बेगम के साथ कर दिया गया।
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए
इस शेर को ग़ालिब की रूह ने लिखा है। तब, जब उमराव बेगम से होने वाले उनके सात बच्चों में से कोई भी अपनी जवानी नहीं देख पाया।
ग़ालिब अदब के शायर हैं, ग़ालिब दर्द के शायर हैं। ग़ालिब ज़िन्दगी के शायर हैं, ग़ालिब मोहब्बत के शायर हैं। एक शेर में वो दुनिया के सबसे समझदार शख़्स हो जाते हैं,
बाज़ीचा ए अत्फ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
मतलब ये दुनिया तो मेरे आगे बच्चों का खेल है, ऐसे तमाशे तो मेरी आँखों के आगे रोज़ हुआ करते हैं। वहीं ग़ालिब कभी बच्चे बनकर रो पड़ते हैं, मानो ज़िन्दगी का कुछ बिल्कुल अज़ीज़ उनसे जुदा हो गया।
दिल ही तो है न संगो ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ।
रोएँगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यूँ।।
मतलब दिल है, पत्थर तो नहीं कि रोएँ नहीं, और जब दर्द होगा तो रोएँगे, इसमें किसी को हमें सताने की ज़रूरत नहीं है।
उस दौर में राजा शमा-ए-महफ़िल लगवाया करते थे, जहाँ बैठते थे उस दौर के सबसे बड़े शायर। ग़ालिब को भी एक बार न्यौता मिला, अपने कुछ अशआर लिखकर वो पहुँचे राज दरबार में। एक मतला और एक शेर कहा तो यूँ कहा,
नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर ए-तस्वीर का
काव-काव-ए सख़्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
जैसा कि आप नहीं समझे, वैसे ही वहाँ भी कोई नहीं समझा। मतला किसी से न उठा, और न ही अगला शेर। ग़ालिब के अशआरों को तवज्जो न मिली। बुझे हुए असद आ पहुँचे अपने घर।
लेकिन फक्कड़पन कब जाता है, उस ज़माने के सबसे बड़े शायर शेख़ इब्राहिम ज़ौक किसी रोज़ पालकी में जा रहे थे, तो उन्होंने सबसे सामने कहा कि
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
बस इतना सुना कि ज़ौक आगबबूला हो उठे। राजा को उन्होंने इत्तला की, राजा ने कहा कि क्यों न ग़ालिब को बुलाकर ही बात की जाए। न्यौता भेजा, ग़ालिब वापस दरबार आए। ज़ौक ने शिकायत की, तो ग़ालिब ने कहा कि ये तो मेरी ग़ज़ल का मक़्ता है।
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।।
सब हँस पड़े। इसे कहते हैं खेलना।
ग़ालिब शाह से कहते हैं, इजाज़त है तो पूरी ग़ज़ल सुनाना चाहता हूँ।
हवाओं में इरशाद की आवाज़ उठी, और ग़ालिब ने महफ़िल लूटना शुरू किया।
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अन्दाज़ ए गुफ़्तगू क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
ग़ालिब की कई ग़ज़लों में इतनी विविधता है कि ये अशआर हर शख़्स हर बार अलग तरह से जुड़ पाता है। मसलन एक फ़क़ीर उनके शेरों को सड़क पर गाता हुआ चलता है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
और वहीं एक तवायफ़ कुछ यूँ गाती है
जला है जिस्म वहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख़ आरज़ू क्या है
आपको बता दूँ कि ग़ालिब राजा की इस शमा-ए-महफ़िल से जितने प्रसिद्ध हुए हों, लेकिन उनके अशआरों से पहला प्यार करने वाली एक तवायफ़ ही थी।
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
ए इलाही ये माजरा क्या है
इस शाम-ए-महफ़िल के बाद ग़ालिब और ज़ौक एक दूसरे के ख़ास हो गए।
ग़ालिब के कई आयाम हैं। वो 7 मृत बच्चों के पिता थे। वो फक्कड़ भी थे, वो शराब के भी शौक़ीन थे। वो ज़हीन इश्क़ करने वाले भी थे। वो सन्त भी थे। वो उधार की भी पीते थे। वो सालों भटकते रहे अपनी एक रुपए वजीफ़े की उम्मीद लेकर, जो उनको कोलकाता के राजा ने देने की बात कही थी। दिल्ली से कोलकाता जाते हुए बनारस भी रुकते हैं। इस शहर के मुरीद भी होते हैं।
अपनी किताब चिराग-ए-दैर में वो कहते हैं-
ब-ख़ातिर दारम ईनक गुल ज़मीने
बहार आई सवाद-ए-दिल नशीने
बनारस रा कसे गुफ़ता कि चीनस्त
हनोज़ अज़ गंग चीनश बर जबीनश्त
अर्थात्
आ गया है
मेरा दिल
फूलों की ऐसी ज़मीं पर
जिसकी आबादी
है सुंदर
जो सुगंध और रंग का
ऐसा चमन है
किसी नादान ने
यह कह दिया था
कि बनारस
चीन के मानिंद है
यह
बात सुनकर
मौज-ए-गंगा
बन गयी,
माथे का बल
सो आज तक है ।
ग़ालिब के लिए कहा जाता है कि वो रात को खाना खाने के बाद लेट जाते थे। शेर लिखने के लिए वो रात को कुर्ते पर गाँठ बाँधते जाते थे। गाँठें बढ़ती जाती थीं, शेर बनते जाते थे। सुबह उठते, और गाँठें खोलते जाते, शेर लिखते जाते।
ग़ालिब ने ज़ौक की आख़िरी यात्रा पर ज़ौक़ का शेर फ़रमाया
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले
ग़ालिब को जानना है तो आपको ये शायर सब जगह दिखेगा। जितनी बार देखोगे, उतनी बार अलग दिखेगा। कभी बच्चा, कभी बड़ा। कभी ज़िन्दा, कभी सिसकता हुआ, कभी सन्त, कभी उस्ताद।
ग़ालिब अपनी ज़िन्दगी से हमेशा अधूरे और मायूस ही रहे। वो कहते हैं,
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।
15 फ़रवरी, सन् 1869 को ग़ालिब ने आख़िरी साँस ली। जैसा कि उन्होंने ने कहा था, कि जब हम न रहेंगे, तब भी हमारे शेर रहेंगे। ग़ालिब का उर्दू शायरी में वही मुकाम है, जो अंग्रेज़ी में शेक्सपियर का है, अवधी में तुलसीदास का है। वह केवल भारत ही नहीं, वरन पूरी दुनिया में बाबा-ए-सुखन के नाम से मशहूर है।
आख़िर में ग़ालिब को याद करते हुए बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि
बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला।
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला।
-मंगलम् भारत
-- Creation by God, Men and Women
--एक शख़्स है, मैं उसके पास हर कुछ दिन में मिलने चला जाता हूँ...