Meaning Of Independence

आँखों  में  हो  लाख  सुख़न  तो  कहना  सुब्ह-ए-आज़ादी
साँसों  में  हो  नई  अगन  तो  कहना  सुब्ह-ए-आज़ादी
जब  ख़ून  तेरा  न्यौछावर  तो  कहना  सुब्ह-ए-आज़ादी
जब  कौम  में  सभी  बराबर  हों  तो  कहना  सुब्ह-ए-आज़ादी
     
      पन्द्रह  अगस्त  का  सूरज  अपने  साथ  ढेर  सारी  ऊर्जाजज़्बादेशप्रेम  और  उल्लास  लेकर  आता  है।  घरों  से  निकलते  हुए  नेताजीबापू  और  भगत  सिंह  की  पोशाक  में  निकलते  हुए  छोटे  बच्चे  अपनी  तोतली  आवाज़  में  भारत  माता  की  जयवन्दे  मातरम्  के  नारे  लगाते  हुए  बहुत  प्यारे  लगते  हैं।  साइकिल  के  हैण्डलों  पर  लगे  तिरंगे  झण्डेएफएम  पर  चलते  आज़ादी  के  गानेस्कूलों  में  सुबह  आठ  बजे  की  हलचलसड़कों  पर  से  निकलती  रैलियाँटेलीविज़न  पर  प्रधानमंत्री  का  राष्ट्र  के  नाम  संदेश  और  व्हॉट्सएप्प  की  डीपी  पर  तिरंगी  वॉलपेपर  बताते  हैं  कि  आज  आज़ादी  का  दिन  है।


    आज  के  दिन  सभी  प्यारे  होते  हैं।  पापासुबह  को  ख़ुद  से  नाश्ता  बनाकर  मम्मी  को  खिलाते  हैंबड़ी  दीदी  अपने  हाथों  से  मुझे  तैयार  कर  स्कूल  भेजती  हैंबस  वाला  भी  अन्य  दिनों  तुलना  कुछ  ज़्यादा  ही  नरमी  से  बरतता  है।  आज  हम  आज़ाद  हैंआज  आज़ादी  का  दिन  है।  आज  सबका  बर्ताव  नरम  हैइंजीनियरिंग  कॉलेज  में  सब  नहाकर  और  अच्छे  कपड़े  पहनकर  आए  हैंक्योंकि  आज  आज़ादी  का  दिन  हैएक  किसान  के  घर  में  भी  आज  खीर  पूरी  बनी  हैक्योंकि  आज  आज़ादी  का  दिन  हैआज  मुन्ना  रो  नहीं  रहा  हैक्योंकि  आज  आज़ादी  का  दिन  है।
          यारये  आज़ादी  हर  दिन  क्यों  नहीं  होतीसब  अगर  आज़ादी  के  दिन  इतने  ही  प्यारे  लग  रहे  हैंतब  तो  आज़ादी  हर  दिन  होनी  चाहिये।  या  फिर  ये  आज़ादी  केवल  आज  के  लिये  है।  और  ये  सारे  तर्क  और  सवाल  मेरे  मन  में  इसीलिये  कौंध  रहे  हैं  क्योंकि  आज  का  दिन  और  दिनों  के  जैसा  नहीं  है।  आज  हम  स्वतन्त्र  हैंकल  फिर  परतन्त्र  हो  जाएंगे।  कल  फिर  वही  उलझनें  हमें  घेर  कर  खड़ी  हो  जाएंगीकल  फिर  महँगाई-महँगाई  चिल्लाते  हुए  न्यूज़  चैनल  हमारे  सामने  होंगे।  क्या  हम  लोग  स्वतन्त्रता  का  वही  अर्थ  समझ  पा  रहे  हैं  जो  स्वतन्त्रता  का  सही  अर्थ  है  या  फिर  हमारे  लिये  स्वतन्त्रता  उन्हीं  कार्यों  तक  सीमित  है  जो  पन्द्रह  अगस्त  को  किये  जाते  हैं।

      मेरे  पिता  जी  ने  मुझसे  कहा  था  कि  –  “तुम्हारी  स्वतन्त्रता  वहीं  पर  आकर  समाप्त  हो  जाती  हैजहाँ  से  दूसरे  की  प्रारम्भ  होती  है।“  अर्थात्  स्वतन्त्रता  की  भी  अपनी  एक  परतन्त्रता  हैउसकी  भी  कुछ  सीमाएँ  हैंउसके  भी  कुछ  अपने  नियम  हैंकुछ  शर्तें  हैं।  स्वतन्त्रता  केवल  अपनी  स्वतन्त्रता  तक  सीमित  नहीं  हैबल्कि  वह  ऐसी  स्वतन्त्रता  हैजिसमें  दूसरे  की  स्वतन्त्रता  का  भी  ख़्याल  रखा  जाता  है।  मेरी  स्वतन्त्रता  तुम्हारी  स्वतन्त्रता  भी  है  और  तुम्हारी  स्वतन्त्रता  में  मेरी  स्वतन्त्रता  भी  है।  जब  ऐसी  स्वतन्त्रता  का  हनन  होता  हैतो  आंदोलन  होते  हैंशीत  युद्ध  होते  हैंजेलें  होती  हैंऔर  भी  बहुत  कुछ  होता  है।  मैं  भी  इसी  स्वतन्त्रता  की  बात  कर  रहा  हूँ।

           कैफ़ी  आज़मी  एक  नज़्म  कहते  हैं-  “बोल  कि  लब  आज़ाद  हैं  तेरे।”  आज़मी  साहब  अपनी  कहने  की  आज़ादी  की  बात  कर  रहे  हैं।  मीडिया  अपनी  ख़बर  दिखाने  की  आज़ादी  की  बात  कर  रहा  है।  स्कूल  अपनी  मनमानी  फ़ीस  बढ़ाने  की  आज़ादी  की  बात  कर  रहे  हैं।  लड़कियाँ  रात  को  आठ  बजे  के  बाद  भी  घूमने  की  आज़ादी  की  बात  कर  रही  हैं।  कॉलेज  के  लड़के  मासबंक  की  आज़ादी  की  बात  कर  रहे  हैं।  और  सभी  लोग  अपने  हिसाब  से  अपनी  आज़ादी  की  बात  कर  रहे  हैं।  अगर  सभी  को  अपनी  आज़ादी  निभाने  का  अधिकार  मिल  जाएतो  देश  किस  राह  पर  चल  निकलेगाइसका  आँकलन  करना  बहुत  कठिन  काम  नहीं।  स्वतन्त्रता  का  घेरा  अपने  आप  में  इतना  व्यापक  है  कि  हमें  ये  जानने  में  थोड़ा  ध्यान  देना  होगा  कि  हमारी  स्वतन्त्रता  की  सीमाएँ  कहाँ  पर  हैं  और  जहाँ  पर  हैंवह  कहाँ  तक  हैं?

      स्वतन्त्रता  अर्थात्  किस  बात  की  स्वतन्त्रतासर्वप्रथम  बात  कर  लेते  हैं  मीडिया  की  स्वतन्त्रता  की।  मीडिया  लगातार  ख़बर  दिखाने  की  स्वतन्त्रता  की  बात  करता  रहा  है।  लेकिन  हम  बात  करें  मुंबई  हमलों  की  या  फिर  संसद  पर  हमले  कीतो  मीडिया  ही  थाजिसने  पाकिस्तान  में  बैठे  आतंकियों  तक  संदेश  पहुँचाया।  यहीं  से  एक  बहस  जन्म  लेती  है  कि  मुंबई  हमले  या  फिर  संसद  हमले  की  मीडिया  कवरेज  अपने  आप  में  सही  है  या  ग़लतस्वयं  से  प्रश्न  कर  ही  हम  इस  मुद्दे  के  अंत  तक  पहुँच  सकते  हैं  कि  मीडिया  को  वास्तविकता  में  इतनी  स्वतन्त्रता  मिलनी  चाहियेजिसमें  रहकर  मीडिया  अपना  काम  करे।  यदि  ऐसी  सीमाएँ  होनी  चाहिएतो  ये  कौन  तय  करेगा  कि  मीडिया  की  कितनी  सीमा  होनी  चाहिए।  हमारी  निरपेक्ष  और  तर्कयुक्त  सोंच  ही  इन    सभी  प्रश्नों  का  उत्तर  है।  अर्थात्  हमारी  सोंच  ही  स्वतन्त्रता  और  परतन्त्रता  की  विचारधारा  को  जन्म  देती  हैऔर  उसकी  सीमाएँ  तय  करती  है।

      राजनीति  में  स्वतन्त्रता  का  विषय  भी  अपने  आप  में  महत्त्वपूर्ण  एवं  दिलचस्प  है।  बात  करते  हैं  जनलोकपाल  बिल  की।  हम  सभी  जानते  हैं  कि  बहसोंविचारधाराओं  के  टकराव  का  वह  दौरजिसमें  जनलोकपाल  नामक  समुद्र  मंथन  से  कुछ  तत्त्व  निकलेकुछ  बातें  निकलींकुछ  विचार  निकलेंएक  राजनीतिक  दल  भी  निकलाऔर  भी  बहुत  कुछ।  प्रश्न  केवल  इतना  है  कि  क्या  जनलोकपाल  उस  स्वतन्त्रता  का  हनन  कर  रहा  थाजो  नेताओं  को  उसके  पहले  मिली  थीं।  विपक्ष  की  नेता  ने  कहा  कि  संघीय  ढाँचे  पर  हमला  है  जनलोकपाल।  और  उसी  जनलोकपाल  के  लिये  पूरा  देश  सड़कों  पर    गया  था।  आख़िर  वह  किसकी  स्वतन्त्रता  पर  हमला  थाऔर  यदि  था  तो  इससे  स्वतन्त्रता  का  क्या  अर्थ  निकलता  है।  विचारों  और  विमर्शों  की  यही  बहस  स्वतन्त्रता  का  अर्थ  समझाती  है।  इसी  आधार  पर  मैं  कहता  हूँ  कि  जब  ऐसी  स्वतन्त्रता  का  हनन  होता  हैतो  युद्ध  का  जन्म  होता  है।  हमारे  भगत  सिंहचन्द्रशेखर  और  अन्य  वीरों  इसी  स्वतन्त्रता  के  यज्ञ  में  अपनी  आहुति  दी  थी।  यही  कारण  है  कि  हम  सब  स्वतन्त्रता  का  अर्थ  निकालने  के  बजाय  उससे  भटक  गए  हैं।  वास्तविकता  में  स्वतन्त्रता  का  अर्थ  है  जनता  का  शासनलोकतन्त्र  में  मज़बूतीतर्कों  के  आधार  पर  बहस  और  उस  बहस  से  निकला  विचार  ही  हमें  प्रत्येक  जगह  स्वतन्त्रता  का  अर्थ  समझाता  है।  सिर्फ़  भेड़  चाल  चलकर  या  कुछ  गिने  चुने  लोगों  पर  भरोसा  करके  हमारा  काम  आसान  हो  जाएलेकिन  हम  स्वतन्त्रता  के  गूढ़  अर्थ  को  समझने  से  बहुत  दूर  निकल  जाएँगे।  फिर  हम  नहीं  समझ  पाएँगे  कि  ओलंपिक  में  हमारी  स्थिति  इतनी  ख़राब  क्यों  हैव्यवस्थाएँ  इतनी  सुदृढ़  क्यों  नहीं  हैंदेश  प्रगति  क्यों  नहीं  कर  रहा  हैहम  आज  भी  इतने  पीछे  क्यों  हैं।  क्योंकि  हमें  स्वतन्त्रता  का  सही  अर्थ  नहीं  पता  है  कि  स्वतन्त्रता  वास्तविकता  में  क्या  है।  वह  पन्द्रह  अगस्त  की  झाँकी  है  या  उससे  इतर  एक  विचार  है  जो  हमें  स्वतन्त्रता  होते  हुए  भी  अपनी  ज़िम्मेदारी  और  कर्त्तव्य  का  भी  एहसास  कराता  है  और  एक  नई  विचारधारा  को  जन्म  देता  है।     

मंगलम्  भारत



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