Submission on Sustainable Development Goals adopted by United Nations in Sept. 2015 in IIPM (Indian Institute of Public Administration).

संयुक्त  राष्ट्र  संघ  द्वारा  सितंबर  2015  में  गए  अपनाए  संपोषित  विकास  के  लक्ष्य


      पिछले  कुछ  दशकों  में  विश्व  ने  विकास  के  नए  कीर्तिमान  रचे  हैं।  आज  भारत  के  साथ  समस्त  विश्व  वैसा  नहीं  रहा,  जैसा  19वीं  सदी  में  हुआ  करता  था।  तब  हमारे  पास  न  रात  के  वक़्त  बल्ब  था,  न  बात  करने  के  लिये  फ़ोन  और  न  ही  गर्मी  से  बचने  के  लिये  कूलर।  इस  काल  में  विज्ञान  और  तक़नीकी  ने  जो  प्रगति  की  है,  वह  निश्चित  रूप  से  प्रशंसा  के  योग्य  है;  परन्तु  इसी  काल  में  जनसंख्या  वृद्धि  का  विस्फोट  और  प्रकृति  का  अत्यधिक  संदोहन  पूरे  विश्व  में  चिंता  का  कारण  बना  हुआ  है।  सात  बिलियन  की  जनसंख्या  के  लिये  रहने  को  ज़मीन,  खाने  को  भोजन  और  पीने  को  पानी  जुटाने  के  लिये  कंपनियाँ  इस  धरती  का  दुरुपयोग  कर  रही  हैं।  एक  वैज्ञानिक  के  अनुसार  अगले  100  वर्षों  में  मनुष्य  का  अस्तित्व  भी  संकट  में  नज़र  आ  रहा  है।  प्रत्येक  राष्ट्र  की  सरकार  के  साझा  संवाद  से  संयुक्त  राष्ट्र  को  17  ऐसे  बिन्दु  मिले,  जिन  पर  काम  कर  हम  आने  वाली  जनसंख्या  को  जीवन  की  सुविधाएँ  भी  उपलब्ध  करा  सकते  हैं,  साथ  ही  प्रकृति  के  संदोहन  पर  भी  रोक  लगा  सकते  हैं।

      भारत  में  2014  में  लोकसभा  चुनाव  का  प्रमुख  मुद्दा  रहा  विकास,  जिसको  जनता  ने  हाथों  हाथ  अपनाकर  एक  मत  से  सरकार  नरेन्द्र  मोदी  जी  के  हाथ  में  थमा  दी।  विगत  विधानसभा  चुनाव  में  भी  प्रमुख  मुद्दा  विकास  ही  रहा,  जिसने  बहुमत  की  सरकारें  भी  बनाईं,  साथ  ही  संयुक्त  राष्ट्र  की  संपोषित  विकास  के  विचार  को  भी  बल  दिया  है।  केन्द्र  सरकार  का  क्रियान्वयन  तथा  उठाए  गए  कदमों  में  संपोषित  विकास  के  लक्ष्यों  पर  सजगता  का  भाव  भी  दिखाई  देता  है।  लेकिन  हमारे  सामने  चुनौतियाँ  भी  कम  नहीं  हैं।  वैश्विक  स्तर  पर  हमें  सहयोग  की  आवश्यकता  है,  पुरानी  नीतियों  में  परिवर्तन  की  ज़रूरत  है,  सरकार  द्वारा  उठाए  कदमों  की  जनता  में  विश्वसनीयता  बने  रहना  भी  कोशिश  है।  आने  वाले  निबंध  में  इन्हीं  विषयों  पर  चर्चा  की  जाएगी।

            वर्ष  1971  में  भारत  की  प्रधानमंत्री  इंदिरा  गाँधी  का  दिया  नारा  गरीबी  हटाओ  समाचार  पत्रों  की  सुर्खियाँ  रहा,  लेकिन  विडंबना  इस  हिन्दुस्तान  की,  कि  इतने  सालों  में  गरीबी  रेखा  घटी  या  नहीं,  गरीबी  नहीं  घटी।  प्लानिंग  कमीशन  की  2011-12  की  रिपोर्ट  देखें  तो  गाँव  व  शहरों  में  कुल  मिलाकर  22%  भारतीय  आज  भी  गरीबी  रेखा  से  नीचे  हैं।  इसी  कारण  अशिक्षा,  बँधुआ  मज़दूरी,  सामाजिक  बुराइयाँ  व  कुपोषण  का  काल  हमारे  सामने  खड़ा  है।  अमीर  व  गरीब  की  बढ़ती  खाई  को  कम  करना  भी  समाज  के  लिये  बड़ी  चुनौती  है।     गरीबी  से  जुड़ा  हुआ  मुद्दा  भूख  भी  है,  जो  कि  संयुक्त  राष्ट्र  संघ  के  लक्ष्यों  की  सूची  में  दूसरा  प्रमुख  बिन्दु  है।  आर्थिक  विकास  को  बढ़ावा  देने  के  लिये  सरकार  ने  कुछ  प्रभावी  कदम  निभाए  हैं।  मसलन  शिक्षा  व  स्किल  डेवेलपमेंट  पर  ज़ोर,  बेटी  बचाओ,  बेटी  पढ़ाओ  अभियान  इत्यादि।  सरकार  की  योजनाओं  पर  सरसरी  निगाह  डालें,  तो  प्रत्येक  तीसरी  योजना  कृषि  से  सम्बन्धित  है।  प्रधानमंत्री  ग्राम  सिंचाई  योजना,  फ़सल  बीमा  योजना,  किसान  विकास  पत्र  जैसी  योजनाएँ  एक  किसान  प्रधान  देश  के  विचार  को  परिलक्षित  करती  हैं,  साथ  ही  गरीबी  से  जंग  लड़ने  में  सक्रिय  भूमिका  दर्शाती  नज़र  आती  हैं।  प्रश्न  केवल  इतना  है  कि  हमारे  पास  सुनिश्चित  आँकड़े  नहीं  हैं,  जो  बता  सकें  कि  कितने  किसानों  को  इन  योजनाओं  का  लाभ  मिला  और  कितनों  की  गरीबी  इससे  दूर  हुई?  महाराष्ट्र  में  किसानों  की  बढ़ती  आत्महत्या  भी  इन  पर  प्रश्न  खड़े  करती  नज़र  आती  है।  लेकिन,  स्किल  डेवेलपमेंट  जैसी  योजनाओं  के  अन्तर्गत  गरीबी  रूपी  विशालकाय  हाथी  पर  अंकुश  का  काम  कर  सकने  में  सक्षम  दिखती  हैं।  प्रधानमंत्री  ने  भूख  व  गरीबी  के  ख़िलाफ़  पड़ोसी  देशों  से  भी  सहयोग  माँगा  है।  आपने  पड़ोसी  देशों  से  सीमित  संसाधनों  को  साझा  करने,  संसाधन  बाँटने  तथा  ऊर्जा  प्रौद्योगिकी  को  बढ़ावा  देने  जैसे  महत्त्वपूर्ण  कदम  रखे  हैं।

      सर्व  भवन्तु  सुखिनः  की  भावना  से  ओत-प्रोत  भारत  देश  प्राचीन  काल  से  ही  स्वास्थ्य  व  चिकित्सा  में  विश्व  का  नेतृत्व  करता  रहा  है।  आचार्य  सुश्रुत  से  लेकर  अनेक  योगाचार्यों  ने  अच्छे  स्वास्थ्य  का  महत्त्व  बतलाया  है।  सुबह  पाँच  बजे  किसी  टीवी  चैनल  पर  बाबा  के  मुँह  से  साँस  लेने  व  छोड़ने  की  प्रक्रिया  को  फूँ  फाँ  समझने  वालों  के  बीच  योग  का  महत्त्व  जब  संयुक्त  राष्ट्र  संघ  में  गूँजा,  तो  समस्त  विश्व  को  21  जून  को  अंतर्राष्ट्रीय  योग  दिवस  का  तोहफ़ा  मिला।  योग  ही  है  जो  मन  व  शरीर,  विचार  व  कर्म,  बल  व  संयम  का  मूर्तरूप  है।  योग  निश्चित  रूप  से  आने  वाली  पीढ़ी  के  लिये  मानसिक  व  शारीरिक  समस्याएँ  कम  करेगा,  लेकिन  सरकार  की  नीतियों  में  पब्लिक  सेक्टर  व  प्राइवेट  सेक्टर  के  इतर  पर्सनल  सेक्टर  को  अधिक  महत्त्व  देने  की  झलक  दिखलाई  देती  है।  चिकित्सा  के  मामले  में  कुछ  ही  समय  पहले  एम्स  की  संख्या  बढ़ाने,  डॉक्टरों  को  जेनेरिक  दवाइयों  पर  ज़ोर  देने  (जो  कि  आर्थिक  सुधारों  में  मददगार  है),  जीवन  ज्योति  बीमा  योजना,  सुरक्षा  बीमा  योजना  जैसे  महत्त्वपूर्ण  कदम  सरकार  ने  निभाए  हैं।  प्रकृति  के  साथ  सामंजस्य  रखने  की  बात  भी  प्रधानमंत्री  के  भाषणों  का  उल्लेखनीय  विषय  रहा  है।  डॉक्टरों  की  कमी,  अपर्याप्त  संसाधन,  व्यापमं  घोटाले  का  फ़र्ज़ीवाड़ा  और  उसके  कारण  डॉक्टरों  पर  से  जनता  का  उठता  भरोसा  जनता  में  पुनः  जगाना  केन्द्र  के  लिये  बड़ी  चुनौती  हो  सकती  है। 

किसी  महान  दार्शनिक  का  कथन  है  –  ‘‘अगर  आपको  एक  वर्ष  में  चाहिये,  तो  चावल  बोओअगर  परिणाम  एक  सदी  के  बाद  चाहिये,  तो  लोगों  को  शिक्षित  करो।’’ 

नेल्सन  मंडेला  ने  कहा  था-  ‘‘शिक्षा  सबसे  सशक्त  हथियार  है,  जिससे  दुनिया  को  बदला  जा  सकता  है।’’  पूर्व  राष्ट्रपति  एपीजे  अब्दुल  कलाम  ने  कहा  था-  ‘‘शिक्षा  में  खर्च  किया  गया  धन  एक  है।’’  लेकिन  गौर  करें  भारत  की  शिक्षा  व्यवस्थाओं  पर,  शिक्षण  संस्थानों  पर,  तो  पाएँगे,  कि  महान  जननायकों  द्वारा  कहे  कथन  भाषणों  के  अलावा  ज़मीनी  स्तर  पर  उपयोग  होते  दिखाई  नहीं  देते।  अंतर्राष्ट्रीय  मैगज़ीनों  में  विश्व  के  सर्वश्रेष्ठ  शिक्षा  संस्थानों  में  भारत  के  विश्वविद्यालयों  की  संख्या  ऊँट  के  मुँह  में  जीरा  जैसी  प्रतीत  होती  है।  कुछ  ही  दिनों  पहले,  शशि  थरूर  जी  के  लोकसभा  में  दिये  बयान,  कि  82  फ़ीसदी  अभियन्ता  (इंजीनियर)  अपने  स्नातकीय  शिक्षा  से  संबंधित  व्यवसायों  से  इतर  रोज़गार  प्राप्त  कर  रहे  हैं,  से  स्पष्ट  समझ  में  आता  है  कि  शिक्षा  अगर  समाज  में  दी  जा  रही  है  तो  उसका  पूर्णतः  उपयोग  भी  समाज  द्वारा  नहीं  किया  जा  रहा  है।  भारतीय  प्रौद्योगिकी  संस्थान,  दिल्ली  व  मुंबई  के  साथ  आईआईएससी,  बैंगलोर  को  छोड़  कर  अंतर्राष्ट्रीय  स्तर  के  शिक्षण  संस्थानों  की  सूची  में  भारत  का  कोई  विशेष  वर्चस्व  नहीं  है। 

      लेकिन  ऐसा  भी  नहीं  है  कि  भारत  शिक्षा  के  क्षेत्र  में  पूरी  तरह  से  पिछड़  चुका  है।  केन्द्र  द्वारा  आयोजित  बेटी  बचाओ,  बेटी  पढ़ाओ  का  नारा  ज़मीनी  स्तर  पर  काम  करता  नज़र  आ  रहा  है।  दिल्ली  सरकार  द्वारा  शिक्षा  के  बजट  में  100  फ़ीसदी  की  वृद्धि  की  प्रशंसा  तो  स्वयं  डॉ0  कलाम  कर  चुके  हैं।  निजी  संस्थानों  की  बढ़ती  फ़ीस  के  शिक्षा  के  बाज़ारीकरण  का  ख़तरा  तो  बढ़ता  है,  लेकिन  सरकारी  विद्यालयों  का  बढ़ता  महत्त्व  दिल्ली  जैसे  महानगरों  में  इस  पर  प्रतिघात  करता  नज़र  आ  रहा  है।  जो  योजनाएँ  सरकार  द्वारा  लागू  होती  हैं,  उनका  जनता  के  निम्नतम  वर्ग  तक  सही-सही  पहुँचाना  बड़ी  चुनौती  है।

      महिला  सशक्तीकरण  का  मुद्दा  सिर्फ़  भारत  ही  नहीं,  अपितु  पूरे  विश्व  में  चिन्ता  का  विषय  बना  हुआ  है।  संपोषित  विकास  के  लक्ष्यों  को  बिना  महिला  सशक्तीकरण  के  प्राप्त  करना  असंभव  है।  इसमें  कोई  दोराय  नहीं  कि  महिलाओं  का  शोषण  पिछले  काफ़ी  समय  से  होता  आ  रहा  है।  संयुक्त  राष्ट्र  में  भी  इस  विषय  पर  बहुत  ज़ोर  दिया  जा  चुका  है।  अगर  हम  बात  करें  कुछ  दशकों  में  परिवर्तन  की,  तो  महिला  सशक्तीकरण  का  भारत  में  धनात्मक  परिवर्तन  देखने  को  मिला  है।  हरियाणा  एवं  राजस्थान  जैसे  प्रदेशों,  जहाँ  पर  कन्या  भ्रूण  हत्या  के  मामले  काफ़ी  तादाद  में  मिलते  थे,  में  भी  बहुत  कमी  आई  है।  भारतीय  मीडिया  ने  भी  इस  विषय  बहुत  महत्त्व  दिया  है।  अस्पतालों  में  भी  लिंग  की  जाँच  निषेध’  के  पोस्टर  प्रायः  देखने  को  मिल  जाते  हैं।  आधी  आबादी  को  शिरोधार्य  करती  महिलाएँ  देश  के  विकास  में  हिस्सेदारी  निभा  रही  हैं।  सरकार  ने  बेटी  बचाओ,  बेटी  पढ़ाओ  के  तहत  2020  तक  100  प्रदेशों  तक  पकड़  बनाने  की  योजना  बनाई  है।  पिछले  कुछ  दिनों  पहले  ही  केन्द्र  ने  महिलाओं  को  गर्भावस्था  के  दौरान  छः  महीने  के  सवैतनिक  अवकाश  की  घोषणा  की  थी।  लेकिन  2011  की  जनगणना  में  प्रति  एक  हज़ार  पुरुषों  पर  918  महिलाओं  की  आँकड़ा  सवाल  खड़े  करता  है।  दिल्ली  में  बढ़ते  बलात्कारों  की  संख्या  भी  इस  महिला  सशक्तीकरण  पर  प्रश्नचिह्न  उठाते  हैं।  इन  सुविधाओं  को  बढ़ाते  हुए  महिलाओं  के  प्रति  समाज  में  व्याप्त  नकारात्मक  सोंच  को  ख़त्म  करना  तथा  महिलाओं  को  क़ानूनी  स्तर  पर  सुरक्षा  प्रदान  करना  (उदा0  के  लिये  498  ए)  प्रभावी  कदमों  के  रूप  में  अपेक्षित  है।

      विकास  कार्यों  की  अंधाधुंध  रफ़्तार  व  प्राकृतिक  संसाधनों  के  भयंकर  दुरुपयोग  से  विश्व  स्वच्छ  पानी  की  कमी  से  जूझ  रहा  है।  विचारकों  का  मत  है  कि  अगला  विश्वयुद्ध  जल  के  लिये  ही  होगा।  2008  की  यूनिसेफ़  की  रिपोर्ट  के  अनुसार  भारत  में  कुल  आबादी  का  31  फ़ीसदी  हिस्सा  ही  स्वच्छ  जल  का  उपयोग  कर  पाता  है।  ग्रामीण  इलाकों  में  तो  हालात  और  भी  बदतर  हैं।  आँकड़ा  पर  गंभीर  होना  बहुत  आवश्यक  हैसिर्फ़  इसलिये  नहीं  कि  यह  मुद्दा  संयुक्त  राष्ट्र  के  संपोषित  विकास  के  लक्ष्यों  की  सूची  में  अग्रिम  स्थान  पर  है,  अपितु  इस  लिये  भी  कि,  यदि  भारत  को  वैश्विक  पटल  पर  एक  उभरती  हुई  महाशक्ति  के  रूप  में  दिखाना  है  तो  भारत  के  सामान्य  नागरिक  की  मूलभूत  सुविधाओं  को  पूरा  करना  भी  उसका  कर्त्तव्य  है।  सरकार  इस  बारे  में  जितने  भी  मत  रखे,  लेकिन  असल  बात  यह  है  कि  स्वच्छता  एवं  पेयजल  जैसी  मूलभूत  सुविधाएँ  आज  भी  जनमानस  की  पहुँच  से  बाहर  हैं।  विदेशी  कंपनियों  को  मेक  इन  इंडिया  के  तहत  लुभाया  तो  जा  रहा  है,  परन्तु  उन  कंपनियों  के  काम  से  पैदा  होने  वाले  कूड़े  की  समस्या  सुलझाने  की  नीति  का  कोई  लेखा-जोखा  हमारे  पास  उपलब्ध  नहीं  है।  जापान  के  सहयोग  मिलने  के  बाद  भी  गंगा  की  सफ़ाई  का  काम  ज़मीनी  स्तर  पर  होता  नज़र  नहीं  आ  रहा  है।  यह  तर्क  उचित  है  कि  एक  सौ  पच्चीस  करोड़  की  आबादी  तक  शुद्ध  पेयजल  पहुँचाना  कठिन  है,  लेकिन  व्यवस्था  का  भी  उत्तरदायित्व  है  कि  नीतियों  का  सदुपयोग  कर  देश  की  इन  मूलभूत  आवश्यकताओं  को  पूरा  करे।

      नीति  आयोग  की  रिपोर्ट  में  जलवायु  परिवर्तन  को  संपोषित  विकास  के  17  लक्ष्यों  में  काफ़ी  महत्त्वपूर्ण  स्थान  दिया  गया  है।  भारत  सरकार  द्वारा  दिये  आँकड़े  बताते  हैं  कि  1990  के  बाद  से  अब  तक  कार्बन  डाइ  ऑक्साइड  में  50  फ़ीसदी  की  वृद्धि  हुई  है।  पिछले  110  वर्षों  में  वैश्विक  जल  स्तर  में  0.19  मीटर  की  वृद्धि  आई  है,  1983-2012  तक  के  बीच  पृथ्वी  का  तापमान  0.85  डिग्री  सेल्सियस  तक  बढ़ा  है।  अगर  यही  स्थिति  रही  तो  2030  तक  तापमान  यह  2  डिग्री  सेल्सियस  तक  बढ़  जाएगा,  जिससे  ग्लेशियरों  के  पिघलने  की  गति  बढ़ेगी,  भूमण्डलीय  ताप  बढ़ेगा,  कार्बन  डाइ  ऑक्साइड  की  मात्रा  बढ़ेगी  तथा  मानव  जीवन  संकट  में  होगा।  उत्तराखण्ड  जैसी  त्रासदी  इसी  लापरवाही  का  परिणाम  है।  अतः  इस  पर  गंभीरता  दिखाना  अत्यावश्यक  है।

      स्वयं  प्रधानमंत्री  मोदी  ने  संयुक्त  राष्ट्र  के  भाषण  में  जलवायु  परिवर्तन  के  साथ  जलवायु  के  प्राकृतिक  नियमों  के  साथ  न्याय  करने  की  बात  कही  है,  जो  कि  संपोषित  विकास  का  महत्त्वपूर्ण  अंग  है।  इसमें  नीली  क्रांति  से  लेकर  छोटे  राष्ट्रों  की  रक्षा,  समुचित  समृद्धि  तथा  सामुद्रिक  संपत्ति  का  न्यायोचित  उपयोग  सम्मिलित  है।  भारत  ने  इसमें  अफ्रीका  एवं  एशिया  के  साथ  काम  करने  तथा  संसाधन  बाँटने  की  बात  कही  है।  सरकार  ने  प्राकृतिक  चिकित्सा  से  उपचार  का  भी  ध्यान  रखा  है।  नीतियों  का  बेहतर  समन्वय,  सभी  देशों  से  इस  विषय  पर  अपना  हाथ  पहले  बढ़ाया  है,  जो  कि  दर्शाता  है  भारत  इस  विषय  पर  उतना  ही  सजग  है,  जितना  कि  संयुक्त  राष्ट्र।  भारत  ने  2030  गैर  प्राकृतिक  संसाधनों  से  40  फ़ीसदी  तक  बिजली  बनाने  का  लक्ष्य  रखा  है,  2020  तक  कार्बन  डाइ  ऑक्साइड  में  20  से  25  फ़ीसदी  की  कमी  लाने  का  भी  लक्ष्य  है।  यही  कारण  है  कि  भारत  परमाणु  आपूर्तिकर्त्ता  समूह  (एनएसजी)  में  अपना  स्थान  सुनिश्चित  करने  के  लिये  इतनी  जद्दोजहद  कर  रहा  है।     

            भारत  विश्व  का  पहला  ऐसा  देश  है,  जिसने  गैर  पारंपरिक  स्रोतों  से  मिलने  वाली  ऊर्जा  का  मंत्रालय  बनाया।  जिस  प्रकार  से  भारत  गैर  पारंपरिक  स्रोतों  से  ऊर्जा  प्राप्त  करने  की  दिशा  में  लगा  है,  वह  दर्शाता  है  कि  भारत  निश्चित  रूप  से  संपोषित  विकास  के  लक्ष्यों  को  प्राप्त  करने  की  सूची  में  मील  का  पत्थर  साबित  होगा।  इकॉनॉमिक  टाइम्स  के  अनुसार,  भारत  बिना  पारंपरिक  स्रोतों  से  लगभग  42.85  गीगावॉट  बिजली  का  उत्पादन  करने  में  सफ़ल  हुआ  है,  जिसमें  तक़रीबन  63  प्रतिशत  बिजली  का  निर्माण  हवा  से  होता  है।  पवनचक्कियों  से  ऊर्जा  प्राप्त  करने  में  सबसे  पहला  राज्य  तमिलनाडु  है  जो  लगभग  7,269  मेगावॉट  बिजली  का  उत्पादन  करता  है।  इसके  इतर  सौर  ऊर्जा  से  भी  बिजली  प्राप्त  की  जा  रही  है,  जो  कि  लगभग  6,762  मेगावॉट  है।  पिछली  सरकार  ने  भी  नवंबर  2009  को,  2013  तक  1,000  मेगावॉट  तथा  2020  तक  20,000  मेगावॉट  अतिरिक्त  बिजली  पैदा  करने  का  लक्ष्य  जवाहरलाल  नेहरू  राष्ट्रीय  सौर  मिशन  के  अंतर्गत  रखा  था।  मौजूदा  केन्द्र  सरकार  भी  गैर  पारंपरिक  स्रोतों  से  मिलने  वाली  ऊर्जा  की  ओर  अधिक  ध्यान  दे  रही  है।  यही  कारण  है  कि  2013  के  अंत  तक  देश  में  कोयला  ख़त्म  होने  की  ख़बरें  टीवी  चैनलों  की  सुर्ख़ियाँ  बनीं  हुईं  थीं,  जिससे  देश  में  अंधकार  का  संकट  पैदा  हो  गया  था,  परन्तु  वर्तमान  में  परिस्थितियाँ  इससे  बहुत  विपरीत  हैं।  हमारे  पास  पर्याप्त  मात्रा  में  तो  नहीं,  परन्तु  सीमित  मात्रा  में  ऊर्जा  उपलब्ध  है।  ऊर्जा  मंत्रालय  ने  अगले  पाँच  वर्षों  के  भीतर  प्रत्येक  प्रदेश  से  न्यूनतम  एक  व  अधिकतम  पाँच  शहरों  को  सौर  शहर  बनाने  का  लक्ष्य  रखा  है,  जो  10  फ़ीसदी  तक  पारंपरिक  ऊर्जा  में  कमी  लाने  में  सक्षम  होगा।  सिर्फ़  योजना  को  लागू  करने  तक  ही  नहीं,  अपितु  प्रत्येक  शहर  को  न्यूनतम  50  लाख  रुपए  की  धनराशि  भी  इस  योजना  के  अन्तर्गत  मुहैया  कराने  का  प्रावधान  है।  सरकार  की  मानें,  तो  इसमें  लगभग  2,173  लाख  रुपए  खर्च  होंगे,  जिसका  परिणाम  अगले  तीन  वर्षों  में  देखने  को  मिलेगा।

      संयुक्त  राष्ट्र  संघ  की  रिपोर्ट  के  अनुसार,  भारत  की  जीडीपी  में  जिस  प्रकार  की  वृद्धि  हो  रही  है,  वह  सूचित  करती  है  कि  आने  वाले  कुछ  वर्षों  में  भारत,  चीन  व  एशिया  के  अन्य  सभी  देशों  से  आगे  निकल  जाएगा।  पिछले  पाँच  वर्षों  में  भारत  की  अर्थव्यवस्था  में  7.26  प्रतिशत  वार्षिक  का  उछाल  देखने  को  मिला  है।  पिछले  दो  वर्षों  2014  व  2015  में  विनिर्माण  (मैन्यूफैक्चरिंग)  विभाग  नें  भी  8.4  प्रतिशत  की  वृद्धि  प्राप्त  की  है,  जो  कि  पहले  4.4  प्रतिशत  है।  इसका  कारण  मेक  इन  इण्डिया  है,  जो  एशिया  के  भीतर  भारत  को  विनिर्माण  का  एक  बड़ा  गढ़  बनाने  की  दिशा  में  उठाया  गया  कदम  है।  वर्ष  2015  को  ब्रिक्स  की  बैठक  के  अनुसार  ब्रिक्स  देशों  की  जनता,  पूरे  विश्व  की  42  फ़ीसदी  है  और  जीडीपी  लगभग  25  फ़ीसदी  है।  साथ  ही  भारत  दक्षिण  एशियाई  क्षेत्रीय  सहयोग  संगठन  (सार्क)  का  भी  अंग  है।  अतः  भारत  की  बढ़ती  अर्थव्यवस्था  भारत  की  वैश्विक  ताक़त  को  मज़बूत  बनाती  है,  साथ  ही  उसकी  अर्थव्यवस्था  व  विनिर्माण  को  और  बनाती  है।  भारत  में  लिंगभेद,  विभिन्न  जातियों  जनजातियों  से  विभेद  तथा  वैचारिक  विभिन्नता  इस  बढ़ती  अर्थव्यवस्था  को  रोकने  के  कारक  बन  सकते  हैं।  महिलाओं  को  नौकरियों  में  स्थान  तथा  विभिन्न  बिन्दु  ऐसे  है,  जिन  पर  बल  देकर  अर्थव्यवस्था  को  और  सुधारा  जा  सकता  है,  जिससे  अन्य  देशों  से  पैसा  माँगने  के  बजाय  भारत  अपने  पाँव  पर  खड़ा  हो  सके  और  संपोषित  विकास  कर  सके।

      जनगणना  2011  के  अनुसार  भारत  में  18  से  35  वर्ष  की  उम्र  वाले  युवाओं  की  संख्या  31  प्रतिशत  के  करीब  है।  जनसंख्या  का  इतना  बड़ा  हिस्सा  रोज़गार  के  लिये  भटकता  है।  वर्ष  2010  में  भारत  की  तत्कालीन  राष्ट्रपति  ने  वर्तमान  दशक  को  ‘‘  नवीनीकरण  का  दशक  ’’  कहा  था।  जहाँ  तक  बात  करें  रोज़गार  की,  तो  इतनी  बड़ी  जनसंख्या  को  रोज़गार  मिलना  असंभव  सा  है।  भारत  का  प्रमुख  व्यवसाय  कृषि  है।  सरकार  इस  व्यवसाय  को  जीवित  रखने  के  लिये  कई  योजनाएँ  चला  रही  है,  जिसमें  किसान  विकास  पत्र,  ग्राम  सिंचाई  योजना,  फ़सल  बीमा  योजना  इत्यादि  शामिल  हैं।  लेकिन  प्रमुख  प्रश्न  यह  है  कि  क्या  कृषि  में  निवेश  करके  भारत  बेरोज़गारी  से  स्वतंत्रता  पा  सकता  है।  भारत  अपनी  ओर  से  बेरोज़गारी  पर  लगाम  लगाने  के  पूरे  प्रयास  कर  रहा  है।  मेक  इन  इण्डिया,  विदेशी  निवेश  तथा  अन्य  देशों  से  हाथ  मिलाने  से  भारत  में  रोज़गार  पैदा  होंगे।  भारत  की  मौजूदा  परिस्थिति  को  देखें  तो  भारत  अपनी  नीतियों  पर  विजय  पाता  नहीं  दिख  रहा,  जिसके  आधार  पर  हम  कह  सकते  कि  भारत  में  रोज़गार  के  पर्याप्त  साधन  मौजूद  हैं।  भारत  ने  विदेशी  निवेश  को  बढ़ावा  देने  के  लिये  भारतीय  क़ानून  में  भी  परिवर्तन  किया  है,  जिससे  भारत  में  विदेशी  निवेश  का  रास्ता  खुलता  है  और  बेरोज़गारी  का  हल  दिखता  है।  इस  विषय  पर  अभी  और  विचार  करने  की  आवश्यकता  महसूस  होती  है।  भारत  में  व्यापार  कराने  हेतु  सरकार  को  अपनी  योजनाओं  को  अमल  में  लाने  की  आवश्यकता  है,  जिसके  आधार  पर  हम  अपने  व्यापार  को  दूसरे  हिस्सों  में  भी  ले  जा  सकें।

      इसके  इतर  भारत  सरकार  ने  भारत  के  क़रीब  100  शहरों  को  स्मार्ट  सिटी  बनाने  का  लक्ष्य  रखा  है,  जिसका  उद्घाटन  प्रधानमंत्री  ने  पुणे  शहर  में  किया।  यदि  ऐसी  योजनाएँ  भारत  में  ठीक  तरह  लागू  होंगी,  तो  कहा  जा  सकता  है  कि  भारत  नवीनीकरण  की  दिशा  में  मज़बूत  क़दम  उठाता  दिख  रहा  है,  जिससे  संपोषित  विकास  के  लक्ष्यों  की  ओर  तो  भारत  बढ़ेगा  ही,  साथ  ही  साथ  वैश्विक  स्तर  पर  भारत  की  छवि  अन्य  देशों  के  मानसिक  मानचित्र  में  सुधरेगी।

      संयुक्त  राष्ट्र  संघ  की  वेबसाइट  के  अनुसार,  10  प्रतिशत  अमीरतम  लोग  विश्व  की  40  प्रतिशत  आय  का  हिस्सा  रखते  हैं।  भारत  में  तो  यह  आँकड़ा  और  भी  बदतर  कहा  जा  सकता  है।  यह  वह  आँकड़ा  है,  जो  अमीर  व  गरीब  के  बीच  की  खाई  को  दिखाता  है।  यह  प्रेमचंद  के  उपन्यासों  की  याद  दिलाता  है  जिसमें  सूदखोर  किस  प्रकार  से  गरीब  पर  कर्ज़  का  भार  डालता  है  और  अंत  में  गरीब  को  उस  कर्ज़  को  चुकाने  से  अपनी  मौत  सस्ती  लगती  है।  लिंग,  धर्म  या  अन्य  किसी  प्रकार  के  विभेद  ही  इस  तरह  की  असमानता  को  जन्म  देते  हैं।  अगर  हम  बात  करें  इस  विषय  में  भारत  के  पक्ष  की  तो  कहना  गलत  नहीं  होगा  कि  ऐसे  विषयों  में  करनी  और  कथनी  में  भेद  नज़र  आता  है।  प्रधानमंत्री  भले  ही  आयकर  चोरी  करने  वालों  पर  कड़े  क़ानून  लगाने  की  बात  कहें,  लेकिन  उसका  धनात्मक  असर  वर्तमान  में  देखने  को  नहीं  मिला  है।  विपक्षियों  का  दिया  नारा  सूट  बूट  की  सरकार  का  भी  असर  जनमानस  के  बीच  अपना  प्रभाव  दिखा  रहा  है।  संयुक्त  राष्ट्र  संघ  का  दसवाँ  लक्ष्य  सामाजिक,  आर्थिक,  राजनीतिक,  शैक्षणिक  विभेद  को  कम  करने  का  है  चाहे  वो  राष्ट्रीय  या  अन्तर्राष्ट्रीय  स्तर  का  ही  क्यों  न  हो।  भारतीय  जनता  में  यह  छवि  बनती  नज़र  नहीं  आ  रही।  असहिष्णुता  का  मुद्दा  उठना,  जेएनयू  का  मुद्दा  उछलना,  जम्मू  एवं  कश्मीर  में  राजनीतिक  अस्थिरता  का  दंश  बताता  है  कि  हम  इस  विषय  पर  इतनी  गंभीरता  नहीं  दिखा  रहे  जितनी  की  हमें  आवश्यकता  है।  यहाँ  तक  कि  अमेरिका  के  राष्ट्रपति  तक  गणतंत्र  दिवस  के  मौके  पर  कह  चुके  हैं  कि  भारत  की  ऐसे  मुद्दों  से  अंतर्राष्ट्रीय  स्तर  पर  छवि  खराब  होती  है।  इसका  असर  अन्य  मुद्दों  पर  भी  नकारात्मक  प्रभाव  डालता  है।

      यह  तथ्य  सौ  फ़ीसदी  सत्य  है  कि  गाँव  की  तुलना  में  शहर,  वैज्ञानिक,  आर्थिक,  स्वास्थय  के  क्षेत्र  में  अधिक  योजनाबद्ध  है।  अगर  बात  करें  शहरों  की  तो  वे  गाँव  की  तुलना  में  अधिक  बेहतर  हैं  या  नज़र  आते  हैं।  अंतर्राष्ट्रीय  स्तर  पर  भी  इसका  प्रभाव  पड़ता  है  तथा  विकास  के  रास्ते  भी  शहर  में  ज़्यादा  तेज़ी  से  खुलते  नज़र  आते  हैं।  यहीं  से  एक  लक्ष्य  के  रूप  में  बेहतर  शहरों  का  निर्माण,  मानव  ज़िन्दगी  को  आसान,  सुरक्षित  व  बेहतर  बनाना  है।  जैसा  कि  पहले  भी  कहा  जा  चुका  है  कि  सरकार  स्मार्ट  सिटी  की  ओर  काफ़ी  ध्यान  दे  रही  है  जिसका  असर  अन्य  लक्ष्यों  व  योजनाओं  पर  सीधे-सीधे  पड़ता  नज़र  आ  रहा  है।  हमारे  समक्ष  एक  बड़ा  प्रश्नचिह्न  यह  खड़ा  होता  है,  कि  हमारे  पास  कोई  मानक  नहीं  है  जिसके  आधार  पर  हम  शहरों  की  सुरक्षा  या  उसके  बेहतर  होने  की  बात  को  तय  कर  सके  या  नाप  सकें।  संयुक्त  राष्ट्र  संघ  ने  भी  इसका  कोई  मानक  उपलब्ध  नहीं  कराया  है।  इसलिये  आँकलन  अपने  आप  में  एक  बड़ी  समस्या  है।  सरकार  द्वारा  100  स्मार्ट  सिटी  के  लिये  काफ़ी  धनराशि  भी  खर्च  की  गई  है,  जिसका  असर  आने  वाले  समय  में  दिखने  के  आसार  हैं।  इसके  इतर  आदर्श  ग्राम  योजना  भी  चलाई  जा  रही  है,  जिसके  अन्तर्गत  गाँवों  को  भी  बेहतर  किया  जा  रहा  है।  आने  वाली  समस्याओं  में  बेहतर  विकास  की  उम्मीद  में  शहरों  को  असुविधा  का  सामना  करना  पड़  सकता  है।  उदाहरण  के  लिये  लखनऊ  में  मेट्रो  के  काम  चलने  से  पूरे  शहर  में  जाम  एक  समस्या  बन  गया  है,  जिसका  असर  पूरे  परिवहन  में  देखने  को  मिल  रहा  है।  गरीबों  का  शोषण  भी  ऐसे  मामलों  में  एक  मुद्दा  बनकर  उभर  सकता  है,  क्योंकि  शहरों  के  निकट  रहने  वाले  गरीब  झोपड़ी  के  ऊपर  होटल  बनाने  से  गरीबों  के  रहने  का  ठिकाना  गुम  जाएगा  और  इसका  प्रभाव  भी  देखने  को  मिल  सकता  है।  अतः  उम्मीद  की  जा  सकती  है  कि  संपोषित  शहर  व  समुदाय  के  निर्माण  में  इन  बातों  का  भी  ख़्याल  रखा  जाए। 

      पूरे  भारत  के  लोगों  की  सुख  सुविधाएँ  पूरी  करने  के  लिये  हम  प्राकृतिक  संसाधनों  का  भरपूर  उपयोग  करते  हैं।  व्यापार,  उपभोक्ता  तथा  कंपनियाँ  लगाना  बहुत  आवश्यक  है  परन्तु  इनके  साथ  संपोषित  विकास  भी  महत्त्वपूर्ण  है।  देश  की  बड़ी  आबादी  तक  बुनियादी  सुविधाएँ  तक  उपलब्ध  नहीं  हो  पाई  हैं।  कई  बार  तो  खाद्यान्न  होने  के  बाद  भी  जनता  तक  उसकी  पहुँच  असंभव  हो  जाती  है।  इन  समस्याओं  को  सुलझाना  परमावश्यक  है,  जो  कि  संपोषित  विकास  के  लिये  बहुत  ज़रूरी  है।  संयुक्त  राष्ट्र  पर्यावरण  कार्यक्रम  (यूएनईपी)  तथा  भारत  के  टेरी  विश्वविद्यालय  परस्पर  मिलकर  इस  विषय  में  कार्यरत  हैं। 

      जनगणना  2011  के  अनुसार  भारत  की  50  प्रतिशत  आबादी  24  की  उम्र  से  नीचे  है  इसलिये  तो  आने  वाले  समय  में  यदि  ऐसा  ही  चलता  रहा  तो  भारत  के  पास  समुचित  संसाधन  होते  हुए  भी  संसाधनों  के  जनसामान्य  तक  न  पहुँचने  की  समस्या  लगातार  बनी  रहेगी।  इसलिये  आवश्यक  है  कि  कुछ  नियम  बनाए  जाएँ।  जैसा  कि  कुछ  दिन  पहले  ही  ख़बर  आई  थी  कि  अनाज  को  सड़ने  से  पहले  ही  गरीबों  में  बाँट  दिया  जाएगा।  ऐसी  ख़बरें  निश्चित  रूप  से  कुछ  बेहतर  हैं,  परन्तु  उससे  भी  बेहतर  उस  अनाज  का  भण्डारण  है।  अतः  ज़रूरी  है  कि  संसाधनों  के  भण्डारण  पर  ध्यान  दिया  जाए  जिससे  संसाधनों  का  सदुपयोग  हो,  दुरुपयोग  न  हो। 

      हमारी  पृथ्वी  का  लगभग  दो  तिहाई  हिस्सा  जल  से  घिरा  है।  जल  में  हमारे  लिये  कई  सारे  संसाधन  छिपे  हैं,  जिनका  मानव  जीवन  तथा  पर्यावरण  संतुलन  में  अभिन्न  योगदान  है।  विश्व  के  लगभग  3  बिलियन  लोग  समुद्र  या  उससे  जुड़ा  व्यवसाय  करते  हैं।  यहाँ  तक  कि  भारत  में  गंगा  नदी  से  ही  करोड़ों  लोगों  का  व्यवसाय  जुड़ा  है।  अतः  हम  समझ  सकते  हैं  कि  मानव  जीवन  व  वर्तमान  अर्थव्यवस्था  के  लिये  जल  व  उसके  संसाधन  कितने  ज़रूरी  हैं।  लेकिन  आँकड़ों  पर  गौर  करें  तो  इस  वक़्त  30  प्रतिशत  से  अधिक  मत्स्य  बाज़ार  का  शोषण  हो  रहा  है।  जो  समुद्र  मानव  द्वारा  उत्सर्जित  30  प्रतिशत  कार्बन  डाइ  ऑक्साइड  को  सोखते  थे,  उन्हीं  समुद्र  में  26  प्रतिशत  तक  अम्लता  भी  पाई  गई  है।  एक  वर्ग  किलोमीटर  में  प्लास्टिक  के  13,000  टुकड़े  का  कूड़ा  मिलता  है(आँकड़े  संयुक्त  राष्ट्र  संघ  की  वेबसाइट  से  उद्धरित  हैं)।  अतः  समुद्र  में  छिपे  संसाधन  का  दुरुपयोग  मानव  जाति  के  भविष्य  को  संकट  में  डालता  है।  इसलिये  आवश्यक  है  कि  समुद्र  के  संसाधनों  का  संरक्षण  एवं  सदुपयोग  हो। 

      सरकार  भी  इस  पर  ध्यान  देते  हुए  अन्य  देशों  के  साथ  साथ  समुद्र  के  संसाधनों  पर  साझा  समृद्धि  के  साथ  काम  करने  को  सहमत  होती  है।  अतः  इन  विषयों  पर  ध्यान  दिया  जाना  चाहिये  कि  संसाधनों  की  सामान्य  तक  पहुँच,  उसका  सदुपयोग  हो  तथा  इन  संसाधनों  के  संदोहन  को  रोकने  के  लिये  भी  आवश्यक  कदम  उठाए  जाएँ।

      दो  तिहाई  जल  में  घिरी  पृथ्वी  में  एक  तिहाई  भाग  स्थल  संपदा  का  भी  है।  पेड़  पौधे  ही  मानव  के  लिये  80  प्रतिशत  भोजन  का  निर्माण  करते  हैं।  पिछले  कुछ  दशकों  में  संतुलन  बहुत  बिगड़ा  है।  पेड़  का  सिर्फ़  इतना  अस्तित्त्व  नहीं  है  कि  वह  मानव  के  लिये  भोजन  बनाते  हैं,  बल्कि  भूस्खलन  जैसी  आपदाओं  को  भी  पेड़  ही  रोकते  हैं।  अगर  देखें  तो  पेड़ों  की  अंधाधुंध  कटाई  से  12  मिलियन  हैक्टेयर  फ़सल  को  प्रतिवर्ष  नुकसान  पहुँचता  है।  इससे  8,300  प्रजातियों  के  जीव  जंतुओं  का  ख़तरे  में  आ  गया  है।  अतः  यह  बहुत  आवश्यक  है  कि  पर्यावरण  को  फिर  से  संतुलित  करने  के  लिये  प्राकृतिक  संपदा  को  पोषित  करने  का  काम  फिर  से  किया  जाए।  इस  संबंध  में  कुछ  दिन  पहले  ही  मुख्यमंत्री  उत्तर  प्रदेश  ने  एक  दिन  में  पाँच  करोड़  पेड़  लगाने  का  रिकॉर्ड  बनाया,  जिसको  मीडिया  में  भी  अच्छा  स्थान  मिला।  इसी  प्रकार  की  अपेक्षाएँ  राज्य  सरकारों  व  केन्द्र  सरकार  से  भी  की  जाती  हैं।  यह  विकास  केवल  पेड़ों  को  सुरक्षित  रखने  से  नहीं,  अपितु  जंगल,  रेगिस्तान,  पहाड़  तथा  अन्य  स्थानों  की  सुरक्षा  करने  से  भी  है। 

      गाँधी  व  बुद्ध  के  दिये  अहिंसा  के  रास्ते  पर  चलने  वाला  देश  भारत,  शान्ति  एवं  सौहार्द  का  सबसे  बड़ा  उदाहरण  है।  अपने  पंचशील  सिद्धान्त  पर  चलते  हुए  भारत  ने  कभी  किसी  देश  पर  पहले  हमले  नहीं  करता,  सदैव  प्रत्त्युत्तर  देता  है।  जहाँ  तक  भारत  की  युद्ध  नीति  का  प्रश्न  है,  तो  वह  अपने  आप  में  बहुत  स्पष्ट  है।  भारत  ने  सदैव  अन्य  राष्ट्रों  के  साथ  मैत्रीपूर्ण  संबंध  रहे  हैं।  यदि  भारत  के  संविधान  पर  गौर  करें,  तो  पाएँगे  कि  किसी  निरपराधी  को  सज़ा  नहीं  मिलती  है,  भले  ही  सौ  अपराधी  छूट  जाएँ।  भारत  ने  कभी  हिंसा  का  समर्थन  नहीं  किया  है।  यह  तथ्य  सत्य  के  धरातल  पर  सही  बैठता  है  कि  आज  भी  अदालतों  में  ढेर  सारे  मामले  विचाराधीन  हैं।  प्रस्तुत  बिन्दु  पर  ध्यान  देना  बहुत  आवश्यक  है,  जिसका  कई  बार  दुरुपयोग  भी  होता  है।  अतः  शान्ति  एवं  न्याय  के  लिये  नए  न्यायालयों  का  निर्माण  केन्द्र  से  अपेक्षित  है।

      जैसा  कि  हम  जानते  हैं,  संपोषित  विकास  के  लक्ष्य  अपने  आप  में  महत्त्वपूर्ण  तो  हैं  ही,  साथ  ही  साथ  कठिन  भी  हैं।  इसमें  अन्य  देशों  के  परस्पर  सहयोग  की  आवश्यकता  है।  भारत  भी  सभी  देशों  के  साथ  चलने  की  बात  कहता  रहा  है।  योग  से  लेकर  अन्य  कई  विषयों  पर  भारत  ने  अन्य  देशों  का  सहयोग  माँगा  है,  जिससे  समझा  जा  सकता  है  कि  भारत  अपने  लक्ष्यों  को  लेकर  कितना  सजग  है।  भारत  ने  अमेरिका,  तंजानिया,  रूस  तथा  अन्य  कई  देशों  से  समय-समय  पर  साथ  चलने  की  बात  की  है।  यहाँ  तक  कि  अपने  शत्रु  समझे  जाने  वाले  मित्र,  पाकिस्तान  के  साथ  भी  भारत  ने  दोस्ती  का  हाथ  बढ़ाया  है।  योग  पर  193  देशों  के  समर्थन,  ब्रिक्स  में  ब्राज़ील,  रूस,  चीन,  दक्षिण  अफ्रीका  का  साथ  भी  भारत  की  साझेदारी  को  दर्शाता  है।  बड़े  स्तर  पर  देखें  तो  इन  लक्ष्यों  के  लिये  भारत  परस्पर  साझेदारी  पर  ज़ोर  देता  है  जो  कि  स्वयं  संपोषित  विकास  का  एक  लक्ष्य  है।  प्रस्तुत  आँकड़ों,  घटनाओं  व  विचारों  पर  गौर  करें  तो  पाएँगे,  कि  भारत  अपने  इन  लक्ष्यों  को  लेकर  काफ़ी  गंभीर  सोंच  रखता  है।  महत्त्वपूर्ण  यह  नहीं  है  कि  हम  संपोषित  विकास  के  लक्ष्यों  को  पा  ही  लें,  लेकिन  उन  लक्ष्यों  की  ओर  अपनी  दिशा  को  ले  जाना  एवं  जितना  हो  सके,  उन  लक्ष्यों  को  पाने  की  कोशिश  करना  ही  हमारा  प्रयास  है। 

 




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