Degenerative Political System calls for tyranny


भारत की अपक्षीय राजनीतिक व्यवस्था, निरंकुश तंत्र को बढ़ावा नहीं देती है।

समाज से बनी सरकार, समाज से बना संविधान
इन दोनों का सम्मिलन, सुगम संगम है ये
समझे इन्हें जो सारहीन, सोंचे इन्हें जो शक्तिहीन
मेरी समझ से सोंच सको, तो दृश्य विहंगम है ये
      मुझे गर्व है भारत की उस राजनीतिक व्यवस्था पर, और भरोसा है भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 पर, जो सरकार को इतनी शक्ति तो देता है कि वह अपनी योजनाएँ जनमानस में रख सके, परन्तु निषेध कर देता है उन सभी नियमों और कानूनों को, जो जनमानस के पक्ष में नहीं होते।

      निरंकुशता वह तत्त्व है, जो सरकार को समाज में अपमानित करता है, सरकार की साख गिराता है, और इसी गिरी हुई साख के चिंगारे एक नई आग को जन्म देते है, जिसे अंग्रेज़ी में anti incumbency और हिन्दी में विरोधी लहर कहते हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई राजनीतिक व्यवस्था होगी, जो अपने प्रति विरोधी लहर को जन्म देगी। अर्थात् भारत की अपक्षयी राजनीतिक व्यवस्था निरंकुश तंत्र को बढ़ावा नहीं देती, बल्कि उसे रोकती है, ख़त्म करती है।

      जब-जब सरकार ने इस निरंकुशता को बढ़ावा दिया है, तब-तब सरकार को मुँह की खानी पड़ी है। मैं याद दिलाना चाहूँगा आपातकाल के बाद मार्च 1977 का वह लोकसभा चुनाव, जिसने पिछले चुनाव की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को हाशिये पर लाकर रख दिया।
      प्रत्येक सरकार की मूलभूत आवश्यकता है कि जनमानस पर थोड़ा सा प्रभाव डालकर अपनी योजनाओं को लागू कर सके। जब ये दबाव ख़त्म हो जाता है, तो पैदा होता है समाज में एक नया डर, जो सरकार को अपनी योजनाओँ को लागू करने से रोकता है। याद करिये 49 दिन की दिल्ली सरकार के उस कार्यकाल को, जिसे हर 24 घंटे में अपने काम का हिसाब देना पड़ रहा था, क्योंकि सरकार का जनमानस पर दबाव नहीं था। अगर कोई इस दबाव को निरंकुशता मानता है, तो ये उसकी भूल है, सरकार की नहीं।
      एक पूर्ण बहुमत की सरकार ही है, जो समाज में जनता के फ़ायदे के लिये कड़े फ़ैसले ले सकती है। कई सारे राजनीतिक दलों की मिली जुली सरकार इतनी शक्तिशाली नहीं है कि राजनीतिक चंदे देकी जानकारी की सीमा 20,000 रुपए से घटाकर 2,000 रुपए कर सके। उसमें शक्ति नहीं है कि वह वित्तीय समावेशन अर्थात् Financial Inclusion को बढ़ावा दे सके, उसमें शक्ति नहीं है कि दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों को सुधार सके, उसमें शक्ति नहीं है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अर्थात् FDI को बढ़ावा दे सके। अगर कोई इसे निरंकुशता मानता है, तो ये उसकी भूल है, सरकार की नहीं।
साहित्यिक सृजन न दिखे तुमको, तो ये तुम्हारी भूल है
बढ़ती पेंशन न दिखे तुमको, तो ये तुम्हारी भूल है
गली गली दंगे कराते दिखते हैं फ़सादी तुमको
देश का उन्नयन न दिखे तुमको, तो ये तुम्हारी भूल है
BManglam.blogspot.in
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